
उन्ही कॉल्स में से एक पर हुई बातों के बाद आज सीकरी के ताल्लुक़ से एक सिलसिला शुरु किया। काफी सराहा जा रहा है। उन लोगों की भी कॉल आई जिनका बहुत से दिनों से राबेता कटा हुआ था। हिम्मत बढ़ी और आज भी आपसे मुख़ातिब हूं।
सीकरी के ताल्लुक़ से एक बेहद गंभीर और वक़्त की नब्ज़ पर पकड़ वाले और बहुत ही कम उम्र, शायर बल्कि यूं कहा जाए कि सुलझी हुई बात कहने वाले का ज़िक्र ख़ैर करना चाहूंगा। उनकी क़लम का पैनापन मुझे आज भी अज़़बर याद है।
ज़ुल्म तशद्दुत और फसाद
अम्न की देवी ज़िंदाबाद
जी हां इसी शेर को लिखने वाले नौजवान की बात करूंगा। लेकिन उससे पहले एक बात और बताता चलूं कि दौर ए हाज़िर में ही नहीं बल्कि जिस दिन से दुनियां की तख़लीक़ हुई है उसी दिन से बहादुरी, देशभक्ति, अपनी माटी से प्यार और समय पर मुश्किल फैसला लेने की सलाहियत बहुत ही बड़ी क़ुदरती देन होती है।
और ये तमाम ख़ुसूसियात हमारे सीकरी के लोगों में पैदायशी तौर पर कूट कूट कर मौजूद है।
1947 में जब लोग भारत छोड़कर दूसरे देश, अच्छे भविष्य के लिए जा रहे थे। गांव के गांव, इलाक़े के इलाक़े, ख़ाली हो रहे थे। तो चारों तरफ की ख़बरों पर नज़र रखने वाले हमारे बुज़ुर्गों ने देश की माटी से प्यार जताते हुए, देशभक्ति का सबूत दिया और अल्हमदुलिल्लाह सीकरी आज भी वहीं है, जबकि आसपास के कई गांव इतिहास में दर्ज हो गये। हांलाकि उस माहौल में आसपास के इलाक़े के कुछ शरारती लोगों ने सोचा कि जैसे दुसरे गांवो के लोगों को डराकर या धमकाकर यहां से भगा दिया गया, ऐसे ही इनको भी डरा लो। तो साहिबो हमारे बुज़ुर्ग भले ही निहायत शरीफ और शांत स्वभाव के थे, लेकिन उन्होने उन लोगों की आंख में आखं डालकर बता दिया था कि ये सीकरी है… यहीं है, और यहीं रहेगी।
ये सीकरी जहां 1902 में ग्रेजुएट जनाब बाबू फख़्रुज़्ज़मां साहेब मरहूम का नाम सुनहरे अल्फ़ाज में शामिल है, वहीं उसी रिवायत को क़ायम करने वाले कई और भी ग्रेजुएट हुए, लेकिन देश छोड़कर जाने का नहीं सोचा गया। अगली बार उन नामों की भी चर्चा होगी। आप भी अपनी जानकारी के मुताबिक़ उस ज़माने के तालीमयाफ्ता लोगों के बारे में बताएं।
तो जनाब सीकरी के लोग, यहीं इसी माटी में इसी देश के हो रहे। और बहादुरी के साथ, आसपास के कुछ शरारती लोगों को टक्कर दी। और हां एक बात और बताता चलूं। इस दौर में भले ही आपको सीकरी से निकलने आने जाने के कई रास्ते नज़र आते हों लेकिन उससे पहले चारों तरफ से सीकरी आने के रास्ते न सिर्फ महदूद थे बल्कि घिरे हुए भी। लेकिन इसका भी हमारे बुज़ुर्गों वे कोई असर न लिया।
इसी के ताल्लुक़ से आगे भी बात होगी। लेकिन अभी फिलहाल बात उस नौजवान की जिसके बारे में फिलवक़्त मुझे ये जानकारी है कि माशाल्लाह आजकल वो मुज़फ़्फ़रनगर की बड़ी मस्जि़द के बाइज़्ज़त इमाम हैं। लेकिन उनके ज़माना ए सहाफत के अलावा काफी अर्से पहले मेरी उनसे उनके घर पर मुलाक़ात हुई थी। मेरे अज़ीज हाफि़ज़ जुरीद साहेब ने उनसे मुलाक़ात कराई थी। जी हां मैं बात कर रहा हूं सीकरी की शान और इलाक़े के बेहद बाविक़ार और नेक इंसान मौलवी ईसा साहेब के पोते और उनके बेटे मौलवी मूसा साहेब के साहिबज़ादे जनाब हाफिज़ ख़ालिद ज़ाहिद साहेब की। उनकी मोहब्बत चाय और तवाज़ो आज भी याद है। उन्होने मुझे अपने शेरों का मजमूआ परवाज़ भी इनायत किया था। उसके कई शेर मुझको उनकी उस ज़माने की उम्र से ख़ासे बुज़ुर्ग और बुर्दबार महसूस हुए। तंज और पैनापन ग़ज़ब का।
उसके बाद उनके बारे में पता चला था कि शायरी के अलावा सहाफत में भी सीकरी का नाम रौशन कर रहे हैं। लेकिन अब सुना है कि सब तर्क कर दिया है।
बहराहल उनके दादा मौलवी ईसा साहेब मरहूम की अज़मत और उनकी बुज़ुर्गी का क्या कहना। उनके बारे में सुना है कि मौलवी ईसा साहेब (अल्लाह बख़्शे) देवबंद के दारुलउलूम में अपने दौर ए तालीम में क़ारी तय्यब साहेब और कई बड़े आलिम ए दीन शख़्सियात के सीनियर थे। उसके अलावा अल्लहम्दुलिल्लाह हमने उनको देखा है। और सीकरी की बड़ी हस्तियों की अगर बात हो तो उनके ज़िक्र के बग़ैर नामुमकिन है।
जबकि ख़ालिद ज़ाहिद साहेब के वालिद ए बुज़ुर्गवार एक बार तबलीग़ी जमात के सिलसिले में ग़ाज़ियाबाद आए तो पूरे इलाक़े में उनकी चर्चा थी, लेकिन वो हमारे घर आए बेहद अपनेपन के साथ रहे और एहसास करा दिया कि सीकरी का ताल्लुक़ आपको अपनों से कैसे जोड़ता है। तो जनाब ख़ालिद ज़ाहिद साहेब सीकरी की पीढ़ी का वो अनमोल रत्न है, जिसकी सलाहियतों को बयां करना आसान नहीं है। सिर्फ एक मुलाक़ात लेकिन उनके अशआर से लगता है कि गंभीरता और दौर ए हाज़िर पर कमांड उनको विरासत में मिले है। ख़ालिद ज़ाहिद साहेब के पूरे परिवार से बेहद नज़दीकी राब्ता रहा है। उनके चचा क़ारी इब्राहीम साहेब का रमज़ान मुबारक में ख़त्म ए क़ुरान एक ज़माने में हमारे बग़ैर कम ही हुआ। और उन्ही के चचा इलयास साहेब भी सीकरी की शान के तौर पर शराफत और नेकी का नमूना है। तमाम फैमली ज़बरदस्त और नेक।
दरअसल आज सीकरी की बहादुरी, शराफत, नेकी और देशभक्ति के अलावा समय पर बड़े फैसले लेने की सालहियतों की बात हो रही थी। तो आपको बता दें कि अज़ीम शख़्सियत मियां जी अय्या साहेब मरहूम की विरासत की पहली कड़ी मौलवी ईसा साहेब न सिर्फ दीनयात में कमांड रखते थे बल्कि लाठी चलाना और पैंतरों के भी माहिर थे। यहां तक कि उनके साहिबज़ादे क़ारी साहेब भी उन्ही से कुछ पैंतरे सीखे हुए हैं। लेकिन आज शायद सीकरी गांव में उस विरासत को लेकर उतनी गंभीरता नज़र नहीं आ रही है।
चलते चलते हाफ़िज़ ख़ालिद ज़ाहिद साहेब से परवाज़ की एक कॉपी के साथ कुछ नये अशआर, कोई नई किताब और सीकरी के सिलसिले के लिए चंद अल्फाज़ की दरख्वास्त करते हुए इजाज़त।