नई दिल्ली/लखनऊ (24 फरवरी 2018)- कॉंग्रेस राज में बाबरी मस्जिद में ताला डला, कांग्रेस राज में मूर्ति रखीं गईं, कांग्रेस राज में बाबरी मस्जिद शहीद की गई। मेरठ, मलियाना, मुरादाबाद, हाशिमपुरा, जमशेदपुर समेत सांप्र
दायिक दंगों में जो कुछ हुआ वो भी कांग्रेस राज में ही था। देर से ही सही लेकिन मुस्लिम समाज के समझ में जब ये बात आई तो कई दशक से केंद्र से लेकर अधिकतर राज्यों सत्ता पर क़ाबिज़ रही कांग्रेस न सिर्फ इतिहास बन गई बल्कि बीजेपी तक को कांग्रेस मुक्त भारत के सपने आने लगे। इसके अलावा कभी कांग्रेस का थोक वोटर माना जाने वाला दलित समाज भी कांग्रेस की नीतियों से नाराज़ होकर काशीराम और दीगर क्षेत्रीय पार्टियों के पक्ष में वोट करने लगा।
उधर कांग्रेस को भी लगा कि मुस्लिमों और दलितों की नाराज़गी उसके लिए बेहद घातक साबित हुई है। हांलाकि हाल ही में बीजेपी की तरह कांग्रेस को भी हिंदु कार्ड की याद आने लगी है। शायद तभी तो राहुल गांधी इऩ दिनों मंदिरों में देखे जाने के अलावा ख़ुद को जनेऊ धारी ब्राह्मण होने का इज़हार करने लगे हैं। बहरहाल बीजेपी के कांग्रेस मुक्त नारे और राहुल गांधी की लगातार नाकामियों से बदहाल कांग्रेस रात दिन सिर्फ इसी फ़िराक़ में रहती है कि किस तरह कम बैक किया जाए।
कभी मायावती के ख़ास सिपहसालार माने जाने वाले और बहुजन समाज पार्टी में बतौर मुस्लिम सबसे बड़ा चेहरा नसीमुद्दीन सिद्दीक़ी का कथिततौर पर मोटी कमाई के बंटवारे को लेकर बहन कुमारी मायावती से मन-मुटाव क्या हुआ, उन्होने तो विधानसभा चुनावों से पहले बीएसपी को तलाक़ तलाक़ तलाक़ ही बोल दिया। इसके बाद काफी अर्से से राजनीतिक बेरोज़गारी झेल रहे नसीमुद्दी सिद्दीक़ी को लेकर कई बार अफवाहों का बाज़ार गर्म हुआ। लेकिन न तो अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी या किसी दूसरे दल ने उनको घास डाली, न ही उनको कहीं सहारा मिला। उधर उत्तर प्रदेश की सत्ता से लंबे राजनीतिक अज्ञातवास से जूझ रही कांग्रेस को मुस्लिम वोटरों को लुभाने के लिए एक चेहरे की तलाश थी। ऐसे में कांग्रेस और नसीमुद्दीन को एक ख़ास लॉबी ने एक दूसरे का पूरक बनाने की कोशशें शुर कर दीं।
लेकिन क्या नसीमुद्दीन सिद्दीक़ी को पार्टी ज्वाइन कराकर कांग्रेस मुस्लिमों का भला करने के लिए गंभीर है, या फिर वो आज भी मुस्लिमों को भेड़ बकरियों की तरह घेरने की कोशिश कर रही है। क्योंकि इतिहास गवाह है कि कांग्रेस ने हमेशा ऐसे ही मुस्लिम कथित नेताओं को अपने बाड़े का पालतू बनाया है, जिनके न रीढ़ हो न ही अपनी कोई सोच।
जी हां यस मैन और यस मैडम वाले कई नेता तब भी कांग्रेस में थे, जब कांग्रेस राज में मुरादाबाद में ईद की नमाज़ के ठीक बाद पाएसी ने नमाज़ अदा करने गये निहत्थे नमाज़ियों को गोलियों से छलनी कर दिया था। इसी कांग्रेस में दर्जनों कथित मुस्लिम नेता तब भी थे जब कांग्रेसी राज में मेरठ, मलियाना और हाशिमपुरा में पुलिस ने मुस्लिम नौजवानों को घरों से निकाल निकाल कर गोलियों से भूना और दर्जनों की लाश को तो गंग नहर में ही बहा दिया था। इसी कांग्रेसी राज में बाबरी मस्जिद के साथ सब कुछ हुआ, लेकिन कांग्रेस में मौजूद दर्जनों बड़े बड़े कथित मुस्लिम नेताओं ने विरोध की एक आवाज़ तक नहीं निकाली।
तो क्या नसीमुद्दीन सिद्दीक़ी को कांग्रेस मे लेने का मक़सद एक बार फिर वही है, जिस पर हमेशा कांग्रेस अमल करती रह है। क्योंकि ये वही नसीमुद्दीन सिद्दीक़ी है जिनके बीएसपी की सत्ता में ताक़तवर रहते हुए भी मुस्लिम समाज का कितना भला हुआ ये सबको मालूम है। इतना ही नहीं नसीमुद्दीन ने इस्तीफे के बाद ख़ुद कहा कि मायावती जी मुस्लिमों के हक़ औ उनके सम्मान को लेकर गंभीर नहीं थी लेकिन हम पार्टी से जुड़े होने की वजह से ख़ामोश रहे। नसीमुद्दीन ने दावा किया था कि मायावती की फोन रिकार्डिंग उनके पास हैं। यानि पार्टी की वफादारी में वो उसी क़ौम का गालियां दिलवाते रहे जिसके दम पर वो सत्ता तक पहुंचे थे। लेकिन जब झगड़ा कथित बंटवारे का हुआ तो फिर से क़ौम याद आ गई। इसके अलावा नसीमुद्दीन सिद्दीक़ी जो मुस्लिमों के नाम पर राजनीति में आए। ख़ुद उन्होने कितनी संपत्ति अर्जित की ये शायद उनको भी मालूम न हो। लेकिन मुस्लिम समाज जहां था, अब भी वहीं है। इसके अलावा उसी मुस्लिम समाज से उनको एक भी चेहरा ऐसा नहीं मिला, जिसको राजनीतिक तौर पर बीएसपी में स्थापित किया जा सके। यहां भी उनको इस काम के लिए सबसे क़ाबिल इंसान अपने ही बेटे अफज़ाल नज़र आए।
तो क्या कांग्रेस कथित मुस्लिम नेताओं की लिस्ट के तौर एक बार फिर ऐसा ही नाम पेश करना चाहती है, जो उसकी पुरानी पंरपरा यानि यस बहनजी/सर/मैडम जी बहन/सर/मैडम पर ही अमल करे। वैसे भी कुछ कांग्रेसी ख़ुद यही कहते हैं कि एक बार को तो शायद भगवान से मिलना आसान है, लेकिन राहुल जी मिलना हमेशा ही एक टेढ़ी खीर रहा है। ऐसे में नसीमुद्दीन सिद्दीक़ी जैसे विवादित नेता की कांग्रेस में सीधी एंट्री ये साबित करती है कि इस खेल में बड़ी लॉबिंग की गई है, और बड़ा गेम भी।
अब सबसे बड़ा सवाल यही है कि क्या कांग्रेस वाक़ई अपने पुराने दाग़ों को धोने के लिए गंभीर है, या फिर सिर्फ इसी बात का इंतज़ार कर रही है कि कब बीजेपी से लोगों का मोह भंग हो और बदहाल वोटर कांग्रेस का दामन थामे। यानि बिना कुछ करे मजबूर और त्रस्त वोटर नये विकल्प की तलाश में कांग्रेस की झोली में आ गिरे। शायद कांग्रेस के रणनीतिकार हाइकमान को .ही समझाने में लगे हैं कि आप बस ड्राइंग रूम तक और मंहगे पर्दो के पीछे से देखते रहिए सब कुछऑटोमैटिकली ठीक हो जाएगा। जब वोटर बीजेपी की सत्ता और नाकामियों से घबराएगा तो कांग्रेस की झोली मे आ गिरेगा। लेकिन शायद वो ये भूल रहे हैं कि केंद्र से साथ लगभग अधिकतर राज्यों से विलुप्त होती कींग्रेस की नय्या डुबोने में कुछ रणनीतिकारों का भी हाथ है। क्योंकि कभी बीजेपी और कांग्रेस की साझी विरासत माने जाने वाली दिल्ली राज्य की सत्ता इस बार आम आदमी पार्टी की झोली में कब जा गिरी ये बड़े बड़ों की समझ में नहीं आया। हांलाकि फिल आम आदमी के नाम पर सत्ता मे आई इस पार्टी पर भी ख़ास ही लोगों का क़ब्ज़ा है। और दिल्ली से लेकर राज्यों तक एक नये सियासी विकल्प के सभी विकल्प खुले हैं।
(लेखक आज़ाद ख़़ालिद टीवी पत्रकार हैं, डीडी आंखों देखी, सहारा समय, इंडिया टीवी, इंडिया न्यूज़ समेत कई दूसरे राष्ट्रीय न्यूज़ चैनलों में महत्वपूर्ण पदों पर कार्य कर चुके हैं)