लखनऊ/नई दिल्ली (15 मार्च 2018)- “ये किसने शाख़-ए-गुल लाकर क़रीब ए आशियां रख दी- कि मैंने शौक़ ए गुल बोसी में काटों पे ज़ुबां रख दी” …. हो सकता है कि कुछ ज़्यादा समझदार लोग सीमाब अकबराबादी के इस शेर को उत्तर प्रदेश के मौजूदा राजनीतिक घटनाक्रम और बहन जी और अखिलेश भय्या के बुआ-भतीजे वाले बदलते हालात से जोड़कर देखने लगें। लेकिन सच्चाई ये है कि ऐसा कुछ नहीं था बल्कि बस यूं ही शेर याद आ गया और लिख मारा।
लेकिन उत्तर प्रदेश की सियासत में आजकल कुछ मजबूरियां, कुछ एक्सपैरिमेंट और कुछ नये प्रेम प्रसंगों की चर्चा चल रही है। कल ही अखिलेश भय्या बाक़यादा एक गुलदस्ता लेकर बहन जी के दर पर जा पहुंचे। दरअसल वो उप चुनाव में समाजवादी पार्टी की साइकिल को मिले हाथी के साथ का शायद धन्यवाद करने गये थे। लेकिन क्या इस नये घटनाक्रम से गैस्ट हॉउस कांड और पिछली सियासी उठापठक पर पर्दा पड़ पाएगा। या फिर “मजबूरी में घटती दूरी देर” तक रह पाएगी। क्या मायावती जी और अखिलेश जी आगे भी गठबंधन करेंगे। या फिर दोनों एक दूसरे को बतौर राजनीतिक अवसरवादी के तौर इस्तेमाल करते रहेंगे। यही तमाम सवाल जनता के मन में हैं और शायद दोनों नेता भी बहुत सोच समझ कर आगे बढ़ रहे होंगे।
लेकिन अगर कुछ लोग वाकई उत्तर प्रदेश की मौजूदा राजनीतिक जोड़तोड़ और इतिहास की बात करना ही चाहते हैं तो उनको न तो गैस्टकांड को भूलना चाहिए, और न ही काशीराम जी की जातिगत कैमिस्ट्री और मुलायम सिंह जी के समाजवाद और बहन मायावती जी का मौजूदा लोकसभा में शून्य और विधानसभा में हाशिये पर पहुंचने को भी नहीं भूलना चाहिए।
वैसे बहन जी अगर ये सोच रहीं है कि समाजवादी अखिलेश भय्या अब गैस्ट हॉउस कांड वाले मुलायम सिंह यादव के बेटे की छवि से निकलकर उनके भतीजे बन रहे हैं, और सपा-बसपा का गठबंधन हाथी को मज़बूत कर देगा तो माफ करना बहन जी, ज़रा एक बार और सोच लीजिए। क्योंकि सच्चाई यही है कि दलितों के वोट बैंक को कहीं भी ट्रांसफऱ करने का माद्दा मायावती में तो है। तो लेकिन यादव और मुस्लिम वोट न तो अकेले मुलायम सिंह एंड ब्रादर्स एंड संस की ही बपौती रह गया है, और न ही उनके कहने पर किसी दूसरे को ट्रांसफर हो सकता है। ये बात 2014 के लोकसभा और बाद में उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में सबने देखी है। साथ ही फिलहाल बहन जी के हाथी को मुस्लिम वोटर के छिटकने का जितना ख़िमयाज़ा भुगतना पड़ रहा है, उससे कहीं ज्यादा अपने वजूद को बचाए रखने की छटपटाहट अखिलेश ख़ेमे में भी है। वैसे भी अखिलेश भय्या ने अपने पिता और चाचा के साथ जो कुछ किया वो उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव से पहले सबने देखा ही है। ऐसे में अगर अपने राजनीतिक वजूद को बचाने के लिए भतीजे को बुआ जी याद आने लगी है, तो बुआ जो को भी सोचना ज़रूरी है।
उधर अखिलेश यादव को भी आंखे मूंदकर ये नहीं सोचना चाहिए कि बुआ जी बदल रहीं हैं। क्योंकि फिलहाल लोकसभा से लेकर उत्तर प्रदेश की सियासत में बहन जी का जो हाल है वो बहन जी को सियासी समझौते कि लिए मजबूर कर सकता है। लेकिन इतिहास गवाह है कि दो-दो बार बीजेपी और एक बार समाजवादी के सहयोग से सूबे की सत्ता तक पहुंचने वाली बहन जी भी राजनीति की नब्ज़ को बख़ूबी समझतीं हैं। यानि कब किसको साथ लेना और कब पटखनी देनी है, ये उनको मालूम है। हां ये सच्चाई है कि अगर समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी का गठबंधन होता है तो उत्तर प्रदेश में उप चुनाव के कल आए नतीज़ों की तरह पूरे देश में बड़ा बदलाव नज़र आएगा।
इस देश में अगर दलित, पिछड़े और अल्पसंख्यक एक प्लेटफॉर्म पर आ जाएं तो यक़ीनन बड़े-बड़ों की सियासत हाशिये पर चली जाएगी। कभी दलित और मुस्लिमों के दम पर देश की सत्ता पर क़ाबिज़ रही कॉंग्रेस बाबू जगजीवन राम जी, बूटा सिंह जी और रफी अहमद क़िदवाई, ज़ैड आर अंसारी समेत कई ऐसे नेताओं को अपने ख़ेमें में जगह देती थी, जो दलितों और अल्पसंख्यकों और पिछड़ो की कथतितौर पर नुमाइंदगी करते थे। लेकिन हुआ ये कि दलित, अल्पसंख्यक और पिछड़े जहां थे, वहीं खड़े रहे। हां ये अलग बात है कि इन नेताओं के ज़रूर अच्छे दिन आते रहे।
दलितों, मुस्लिमों और पिछड़ों का न सिर्फ विश्वास अपने कथित नेताओं से हटा बल्कि कॉंग्रेस भी बेनक़ाब होती चली गई। इसके बाद दलित सियासत में एक नई रोशनी का उदय हुआ और काशीराम जी की राजनीतिक कैमिस्ट्री ने दलितों और कमज़ोरों को एक नया रास्ता दिखाया। और काशीराम जी के कुशल मार्गदर्शन में दलित की बेटी का सफर सूबे की सत्ता के मुखिया तक जा पहुंचा।
उधर चाहे बाबरी मस्जिद में ताला डलवाने का दर्द हो या फिर मूर्तियां रखवाने से लेकर कांग्रेस शासन में बाबरी मस्जिद की शहादत ने मुसिल्मों के लिए कॉंग्रेस को सवालों के दायरे में ला खड़ा किया। हांलाकि मुस्लिम समाज मेरठ, मलियाना, मुरादाबाद समेत सैंकड़ों सांम्प्रदायिक दंगों के लिए कॉंग्रेस से मिले ज़ख़्मों को सहता रहा। लेकिन बाबरी मस्जिद की शाहदत ने मुस्लिमों के दर्द को बेबर्दाश्त कर दिया। ऐसे में कभी हिंदी भाषा के नाम पर ख़ुद को चमकाने की कोशिश करने वाले मुलायम सिंह यादव, जेपी आंदोलन की राजनीतिक क्लास से निकले कुछ नेताओं और बोफोर्स तोप का सियासी गोला लिए वीपी सिंह ने कॉंग्रेस की जड़े खोदने का काम शुरु किया। मुस्लिम वोटरों को अपना एक नया सियासी मसीहा नज़र आया और मुस्लिम दलित और पिछड़ों ने एक प्लेटफॉर्म पर आकर देश की राजनीतिक दिशा ही बदल दी थी।
आपातकाल के बाद देश में एक बार फिर कॉंग्रेस के ख़िलाफ माहौल बना और जनमोर्चा के रथ पर सवार वीपी सिंह प्रधानमंत्री बन गये। लेकिन कथिततौर पर कांग्रेस के इशारों पर रातों रात चंद्रशेखर जी की महत्वकांशा के आगे जनमोर्चा बिखरा और मुलायम सिंह यादव ने वीपी सिंह से दामन छुड़ाकर चंद्रशेखर के साथ सत्ता का स्वाद लिया। लेकिन इस दौरान दो बड़े घटनाक्रम भी हुए एक तो दलित, कमज़ोर, पिछड़े और मुस्लिम एक मंच पर आए। दूसरा बीजेपी 2 सीटों से अस्सी से भी आगे जा पहुंची।
इसी दौरान उत्तर प्रदेश की सियासत ने एक नये राजनीतिक बदलाव का भी दीदार किया। जिसकी जितनी संख्या भारी, उतनी उसकी हिस्सेदारी का नारा देने वाले काशीराम जी ने न सिर्फ एक नई पॉलिटिकल और सोशल इंजीनियरिंग से देश की राजनीति को रू-ब-रू कराया, बल्कि सियासत में बड़े उलट-फेर भी किये। काशीराम जी ने 1993 में उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के लिए मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी के साथ चुनावी गठबंधन के बाद भारतीय जनता पार्टी को उत्तर प्रदेश में उस वक्त हराया, जब कोई सोच भी नहीं सकता था बीजेपी हार भी सकती है। कभी बामसेफ के अध्यक्ष रहे काशीराम जी सत्ता का डिस्ट्रीब्यूशन चाहते थे। काशीराम पंजाबी के गुरुकिल्ली शब्द का इस्तेमाल करते थे, जिसका मतलब था सत्ता की चाबी। काशीराम का मानना था कि ताकत पाने के लिए राज्य पर कब्ज़ा ज़रूरी है। काशीराम कांग्रेस से जुड़े कुछ दलित नेताओं को चमचा नेता कहते थे। 1981 में उन्होंने दलित शोषित समाज संघर्ष समिति यानि डीएस4 की बुनियाद रखी, 1982 में उन्होंने ‘द चमचा एज’ लिखा जिसमें उन्होंने उन दलित नेताओं की आलोचना की जो कांग्रेस जैसी परंपरागत मुख्यधारा की पार्टी के लिए काम करते है।
उन्ही काशीराम की राजनीतिक पाठशाला की एक होनहार छात्रा मायावती के लिए उत्तर प्रदेश के इस उप चुनाव में समाजवादी पार्टी को समर्थन देना कोई ताज्जुब की बात नहीं। लेकिन जिस दलित वोट बैंक की ताक़त बहन जी को देश का बड़ा नेता बना सकती है, उसी दलित के लिए मुलायम सिंह यादव और समाजवादी पार्टी एक खलनायक की तरह थे। जबकि कुछ मामलों पर मुस्लिमों का बीएसपी के बजाय समाजवादी से लगाव ही आज बहन जी को इस तरह के समझौते करने पर मजबूर कर रहा है। लेकिन ज़रूरत इस बात की भी है कि मुस्लिमों को बीएसपी से पूरी तरह न जोड़ पाना और उसके कुछ कथित मुसिल्म नेताओं की नाकामी पर बहन जी को मंथन करना होगा। बहुजन समाज पार्टी में नसीमुद्दीन सिद्दीक़ी जैसे कुछ नेता कथिततौर पर मुस्लिम चेहरा थे। लेकिन उन्होने या किसी दूसरे बसपाई मुस्लिम ने मुस्लिम समाज में कितनी पैठ बनाई ये बड़ा सवाल है। ऐसे में अगर मुस्लिम वोटों के दम पर सियासत कर रही समाजवादी पार्टी से हाथ मिलाने के बजाए ख़ुद मायावती मुस्लिमों से संवाद क़ायम करें, और अपनी पुरानी गल्तियों पर मंथन करें तो शायद बेहतर होगा।
जबकि अखिलेश यादव को भी अकेले आज़मख़ान को दर्जनों मंत्रालय देने और मुज़्फ़्फ़रनगर दंगों के पीड़ितों की सुनने के बजाय सैफई महोत्सव में उठे संगीत के शोर के आरोपों से बाहर निकलना होगा। नहीं तो उपचुनाव की ये कामयाबी 2019 के इम्तिहान में टिक पाएगी या नहीं ये कोई नहीं कह सकता।
(लेखक आज़ाद ख़ालिद टीवी पत्रकार हैं डीडी आंखों देखीं, सहारा समय, इंडिया टीवी, इंडिया न्यूज़ समेत कई राष्ट्रीय चैनलों में महत्वपूर्ण पदों पर कार्य कर चुके हैं।)
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