ये कहानी उस रसूल गलवान की है, जिसके नाम पर गलवान वैली का नाम पड़ा। वो गलवान वैली जहां पिछले दिनों भारत ने अपने 20 सैनिकों को खोया। लेह बाजार से लेकर देशभर के मीडिया में पिछले एक हफ्ते में जो सबसे ज्यादा मशहूर हुआ है वो है लद्दाख का रहने वाला ये परिवार। चीन और भारतीय सेना के बीच जिस गलवान नाले पर झड़प हुई वो गलवान नाला इसी परिवार के पूर्वज रसूल गलवान के नाम पर है।
गलवान गेस्ट हाउस लेह में इतना मशहूर पहले कभी नहीं था। लेह बाजार में यूं उसके चर्चे भी नहीं हुए थे। ताशी हमें रसूल गलवान के घर लेकर गए, कहने लगे मार्केट में सब उसकी ही स्टोरी बता रहे हैं।
घर के बाहर ही हमें रसूल गलवान की चौथी पीढ़ी पढ़ाई करती हुई मिली। जाहिर था सबसे पहला सवाल हमने उन्हीं से पूछे। मालूम हुआ कि उनके दादा के पिता रसूल गलवान की कहानी उन्हें भी पिछले हफ्ते ही पता चली है। मम्मी ने ही उन्हें बताया की टीवी पर जो ये गलवान वैली की बात हो रही है न, वो हमारे नानू के पापा थे।
मोहम्मद अमीन, रसूल गलवान के पोते हैं। इन दिनों थोड़े ज्यादा व्यस्त हैं, क्योंकि अलग-अलग मीडिया वाले उनका इंटरव्यू लेने आ रहे हैं। उनके पास तो खाने पीने का भी वक्त नहीं बचा है। लेह के यूरटुंग इलाके में अमीन एक छोटा सा गेस्ट हाउस चलाते हैं। इससे पहले वे डीसी ऑफिस में क्लर्क थे और कुछ साल पहले ही रिटायरहो गए।
अमीन अपने दादा की कहानी सुनाने लगे। वो ये कहानी हर मीडिया वाले को हूबहू सुना रहे हैं। कहने लगे सब आकर यही पूछ रहे हैं- ‘गलवान नाले का नाम कैसे पड़ा, आपके दादा क्या काम करते थे?’
12 साल की उम्र सेगाइड थे दादा
अमीन बड़े फख्र से कहानी सुनाते लगते हैं। उन्होंने बताया कि कि मेरे दादा 12 साल की उम्र से गाइड का काम करते थे। 10 दिन में पैदल लद्दाख से जोजिला दर्रा पार कर कश्मीर चले जाते थे। ऐसे ही एक बार अंग्रेजों के साथ वे ट्रैकिंग कर काराकोरम पास से अक्साई चिन होते हुए जा रहे थे। तभी वे लोग एक खड़ी पहाड़ी के पास फंस गए। आगे जाने का कोई रास्ता ही नजर नहीं आ रहा था। तभी मेरे दादा रसूल गलवान ने रास्ता खोजा और अंग्रेजों को पार करवाया। वे बड़े तेज और फुर्तीले थे। तभी अंग्रेजों ने खुश होकर उस जगह का नाम ही मेरे दादा के नाम पर रख दिया।
मेरे दादा के दो बच्चे थे- मेरे पिताजी और मेरे चाचा। 30 मार्च 1925 को दादा की मौत हो गई थी। तब मेरे पिताजी भी बहुत छोटे थे। अमीन के मुताबिक, उनके अब्बा ने ही उन्हें सबसे पहले दादा की कहानी सुनाई थी। वे ही बताते थे कि मेरे दादा कैसे ही कहीं भी चले जाते थे।
दादा की याद के तौर पर बस एक किताब
मोहम्मद अमीन के पास अपने दादा की याद बतौर सिर्फ एक किताब है, जिसे उन्होंने 1995 में रीप्रिंट करवाया था। अमीन कहते हैं कि वे इसे लंदन के म्यूजिम से लाए थे। इसी किताब में रसूल गलवान की इकलौती तस्वीर है।
लेह में जहां रसूल गलवान रहते थे उस जमीन पर अब एक म्यूजिम बन चुका है। अमीन कहते हैं ये जो उनका घर है और आसपास की सड़क ये पूरी जमीन अंग्रेजों ने उनके दादा को दी थी। जमीन की लड़ाई तो चीन के साथ भी है। इस सवाल पर अमीन कहते हैं, जब गलवान नाले का नाम उनके दादा के नाम पर है और वे हिंदुस्तानी थे तो फिर वो जमीन चीन की कैसे हुई? कहते हैं कि हमारा परिवार एक बार गलवान नाला देखने जाना चाहता है। आज तक कोई वहां गया ही नहीं है। अमीन की एक शिकायत और है। कहते हैं कि किताब को कश्मीरियों ने भी प्रिंट करवाया है। वो भी हमसे पूछे बिना।
अंग्रेजों के गाइड बनने वाले गुलाम रसूल लद्दाख के पहले व्यक्ति थे
अमीन के मुताबिक- मेरे दादा लद्दाख के पहला आदमी था, जो अंग्रेजी ट्रैकरों के गाइड बने। 1888 में लेह से अक्साई चिन की तरफ निकल गया था। रसूल गलवान 14 साल के थे, जब उन्होंने इस रास्ते को पार किया और ब्रिटिश एक्सप्लोरर को मंजिल तक पहुंचाया। रसूल गलवान ने अंग्रेजों से कहा कि वे उनके साथ जाना चाहते हैं। अंग्रेजों ने उन्हें बोला कि तुम इतने छोटे हो, कैसे जा पाओगे? पर रसूल गलवान नहीं डरे। जब वे लोग वहां पहुंचे तो रास्ता नजर नहीं आ रहा था और सामने मौत थी। रसूल ने उन्हें मंजिले मकसूद तक पहुंचाया और इस पर अंग्रेज बहुत खुश भी हो गए।
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