कुशोक बकुला रिम्पोचे एयरपोर्ट की छोटी सी हवाई पट्टी से एयरक्राफ्ट के पहिए अभी बुहत दूर ही थे कि केबिन क्रू ने अनाउंसमेंट किया- ‘लेह एक डिफेंस एयरपोर्ट है यहां तस्वीरें लेना मना है, जय हिंद’।
30 मिनट तक बर्फ से ढके पर्वतों के ऊपर मंडराने के बाद स्पाइस जेट का ये विमान आखिर लैंड हुआ। एयरक्राफ्ट के अंदर ही थे कि फाइटर प्लेन की आवाजें आने लगीं। यात्री खिड़कियों से बाहर झांकने लगे।
एयरपोर्ट बस ने जब तक अराइवल गेट पर पहुंचाया और वहां कोरोना से जुड़े रजिस्ट्रेशन पूरे हुए, तब तक चार फाइटर और दो ट्रांसपोर्ट एयरक्राफ्ट विमान उड़ान भरते नजर आ चुके थे। इनमें से कुछ सुखोई तो कुछ वायुसेना के नए सदस्य चिनूक हेलिकॉप्टर थे।
एयरपोर्ट से सीधे कर्नल सोनम वांगचुक के घर पहुंचे। लद्दाख के शेर कहलानेवाले रिटायर्ड कर्नल सोनम वांगचुक को करगिल युद्ध में अदम्य साहस के लिए देश का दूसरा सबसे बड़ा वीरता पदक महावीर चक्र मिला है।
लेह के बाहरी इलाके में मशहूर शांति स्तूप से चंद कदमों की दूरी पर उनका घर है। घर के बाहर सड़क पर उनके पिता टहलते मिले।
सोनम वांगचुककी मां लद्दाख के मशहूर बौद्ध गुरु कुशोक बकुला रिम्पोचे की रिश्तेदार हैं। ये वही रिम्पोचे हैं जिनके नाम पर लेह का एयरपोर्ट है। घर की चौखट पर खड़ी वो बाहर से आने-जाने वालों को देखकर मुस्कुराती हैं। तभी अचानक एक फाइटर जेट उड़ान-भरता है और उनके सिलवटों वाले चेहरे पर चिंता की लकीरें गाढ़ी हो जाती हैं। पूछने पर बताती हैं- करगिल युद्ध जैसा महसूस हो रहा है। बहुत चिंता होती है। वो वक्त याद आने लगता है जब 20 साल पहले बेटा ऐसी ही पहाड़ी चोटियों पर युद्ध लड़ रहा था।
दो साल पहले सेना से रिटायर हुए कर्नल सोनम वांगचुककहते हैं इन दिनों यहां लद्दाख के घरों में बस यही बातें होती हैं। क्या होगा, कहीं फिर युद्ध तो नहीं होगा? सभी को चिंता है। और क्यों न हो। उनके बेटे जो फॉरवर्ड पोस्ट पर तैनात हैं।
तीन दिन पहले जब गलवान के शहीदों का शव लेह पहुंचा तो उसे सलाम करने कई माएं सड़क पर खड़ी इंतजार कर रहीं थी। लद्दाख के पारंपरिक स्कार्फ खदक लहराकर उन्होंने भारतीय सेना के उन 20 शहीदों को श्रद्धांजलि दी। और इलाका भारत माता की जय से गूंजने लगा। गलवान में स्थिति तनावपूर्ण हैं और लद्दाख के लोगों में गुस्सा है।
कर्नल सोनम कहते हैं, “इलाके का शायद ही कोई घर हो जिसका कोई अपना सेना में न हो और इस वक्त ज्यादातर सरहद पर मोबेलाइज हो चुके हैं। यही वजह है कि लद्दाख के घरों में इन दिनों तनाव थोड़ा ज्यादा है।
लद्दाख के लोगों का चीन पर गुस्सा कोई नई बात नहीं है। उन्हें हमेशा यही लगता है कि चीन ने हमारे चरवाहों के उन इलाकों पर कब्जा कर लिया है, जहां वो अपने जानवर लेकर जाते थे। कर्नल सोनम भी इस बात से वास्ता रखते हैं। वे कहते हैं, “मैं जब देमचोक, पैंगॉन्ग के इलाके में तैनात था तो वहां देख चुका हूं। चीन अपने चरवाहों को हमारे इलाकों में घूमने देता है, लेकिन हमारे भारतीय चरवाहों को उस पार जाने की मनाही है। चीन की हमारे इलाके में कब्जे की ये भी एक रणनीति है।”
कर्नल सोनम कहते हैं, “फिलहाल झगड़ा सड़क बनाने का है। चीन नहीं चाहता हम सरहद के पास तक इंफ्रास्ट्रक्चर तैयार करें। जबकि खुद चीन ने आखिरी छोर तक पक्की सड़कें बना रखी हैं।”
सड़क का जिक्र आया है तो बता दें, जिस फ्लाइट से हम लेह पहुंचे उसमें इक्का-दुक्का स्थानीय लोगों और चुनिंदा सैनिकों के अलावा जो भीड़ थी वो उन प्रवासी मजदूरों की थी जो बिहार से लद्दाख सड़क बनाने का काम करने आए हैं।
राहुल पिछले चार सालों से मार्च से नवंबर तक के कुछ महीने यहीं नौकरी करते हैं। उनका घर सहरसा में हैऔर कंपनी उन्हें हर बार बागडोगरा से लेह तक की फ्लाइट के टिकट भेजती है। महीने के 20 हजार रुपए सैलरी के अलावा रहना खाना उन्हें कंपनी देती है।
राहुल के पड़ोस के गांव में बबलू रहते हैं। वे कहते हैं, जितना पैसा यहां मिलता है उतना काम और पैसा बिहार में नहीं मिलेगा। इसलिए यहां चले आए। पहले नाक से खून आता था क्योंकि यहां हाईएल्टीट्यूड से जुड़ी दिक्कतें हैं, लेकिन अब उन्हें आदत हो गई है। लेह एयरपोर्ट की ओर उंगली दिखाकर बड़े गर्व के साथ वे कहते हैं, “मैंने इस एयरपोर्ट की सड़क बनाने का भी काम किया है।”
सरहद के हालात को देखते हुए सेना ने लेह सिटी से 20 किमी बाहर के सारे रास्ते मीडिया और टूरिस्ट के लिए बंद कर दिए हैं। हां, आम लोगों को आईडी कार्ड दिखाकर उनके गांव तक जाने दिया जा रहा है। सरहद के इलाकों में क्या हालात हैं? कोई नहीं जानता।
नुब्रा के रहनेवाले एक फौजी जो अहमदाबाद में तैनात हैं इसी फ्लाइट से छुट्टी पर घर आए हैं। वे बताते हैं, “चीन सीमा पर बसे गांव में उनके रिश्तेदार रहते हैं, लेकिन दो महीनों से उनसे बात नहीं हुई क्योंकि वहां मोबाइल सर्विस बंद कर दी गई है।”
फिलहाल जितनी भी मीडिया टीमें लेह पहुंची हैं वो इसके 20 किमी के दायरे में कैद होकर रह गई हैं। आमतौर पर डीसी ऑफिस सरहदी इलाकों में जाने की इजाजत इनर लाइन परमिट के रूप में देता है। लेकिन कोरोना के बाद लगे लॉकडाउन के वक्त से ही वो बंद है। यहां तक की अब मीडिया को भी यहां-वहां जाने की मनाही है।
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