गाजियाबाद (01-05-2018)- क्या ग़ाज़ियाबाद प्रशासन और पुलिस गाजियाबाद के पत्रकारों के हितों को लेकर गंभीर है…? क्या ग़ाज़ियाबाद पुलिस गाजियाबाद के पत्रकारों की सुरक्षा करने में नाकाम है…? क्या गाजियाबाद प्रशासन पत्रकारों को दबाव में रखना चाहता है…? क्या गाजियाबाद के पत्रकारों का गाजियाबाद प्रशासन से कोई बुराना बैर है…? क्या गाजियाबाद के पत्रकार गाजियाबाद प्रशासन पर दबाव बनाकर अपने हित साधना चाहते हैं… ? क्या गाजियाबाद में कुछ फ़र्ज़ी और ब्लैक मेलर पत्रकार पत्रकारिता की छवि को धूमिल कर रहे हैं…? क्या गाजियाबाद के कुछ पत्रकार कुछ अफसरों की शह और मीडिया की आड़ में मोटी उगाह का गेम खेल रहे हैं…? क्या गाजियाबाद के पत्रकार पत्रकारिता धर्म को निभाते हुए जनता के हितों के लिए काम कर रहे हैं…? दरअसल ये तमाम सवाल हाल ही में पत्रकार अनुज चौधरी पर हुए जान लेवा हमले और जीडीए के कथित मामले में कुछ पत्रकारों के खिलाफ दर्ज कराई गई एफआईआर के बाद उठे हैं…!
साथ ही पिछले दिनों चाहे हंसराज हंस का मामला, नये गाजियाबाद रेलवे स्टेशन के पास होटल में पकड़े गये पत्रकारों का मामला हो या फिर पत्रकार बनाम आसाराम के खिलाफ उठे विवाद के अलावा मेरठ रोड पर मोटी रकम उगाहते हुए रंगे हाथों पकड़े एक पत्रकार की घटना जैसे मामलों और 2011 में प्रशासन के खिलाफ ख़बरें लिखने वाले एक पत्रकार के खिलाफ चंद मिनटों में दर्ज होने वाली कई एफआईआर और उसके घर की बिजली और पानी काटे जाने जैसी कई घटनाओं के बाद उठने लगे है…!!
सवाल बहुत हैं… लेकिन अपने ऊपर उठी उंगलियों के जवाब में गाजियाबाद प्रशासन का कहना है कि पत्रकारिता और पत्रकारों का पूरा सम्मान है और पत्रकारों के मामलों को हम पूरी गंभीरता से लिया जाता है और उनकी सुरक्षा के लिए पुलिस और प्रशासन पूरी तरह मुस्दैत है। साथ ही पुलिस का दावा है कि हर आदमी की तरह हर पत्रकार की सुरक्षा भी हमारी प्राथमिकता है। लेकिन दबे अल्फाज़ में पुलिस का ये भी कहना है कि वर्तमान में कुछ पत्रकारों की संदिग्ध छवि और उनके क्रिया कलापों को लेकर पुलिस खासतौर से पसोपेश में है। पुलिस सूत्रों की मानें तो केवल पत्रकारिता की गरिमा और मीडिया जगत के सम्मान की वजह से कई ऐसे लोग पुलिस के लिए चुनौती बनते जा रहे हैं जिनकी जांच होना बेहद ज़रूरी है।
गाजियाबाद प्रशासन का रोना ये है कि कुछ फर्जी पत्राकारों की गतिविधियों की वजह से ईमानदार और सच्चे पत्रकारों को भी कभी कभी पूरी तवज्जों नहीं मिल पाती है।
जबकि इस मामले पर गाजियाबाद के पत्रकारों का आरोप है कि गाजियाबाद प्रशासन भले ही पत्रकारों को पूरी सम्मान देने का दावा करे लेकिन कई मामलों में प्रशासन भी इंसाफ नहीं कर पाता है । जैसा कि हाल ही में गाजियाबाद से सहारा समय के पत्रकार अनुज चौधरी पर हुए जानलेवा हमले को लेकर गाजियाबाद के पत्रकारिता जगत में खासा गुस्सा देखा गया है। पत्रकारों का आरोप है कि इस मामले में पुलिस ने अपनी ज़िम्मेदारी का पूरी तरह से निर्वाह नहीं किया है। जबकि गाजियाबाद पुलिस का दावा है कि हमने इस मामले में नियमानुसार पूरी कार्रवाई की और आरोपियों को गिरफ्तार कर लिया है। हालांकि नाम न छापने की शर्त पर पुलिस विभाग के कुछ लोगों का ये भी कहना है कि अनुज चौधरी पर हुए हमले को पत्रकारिता पर हमले के तौर पर नहीं देखा चाहिए, क्योंकि ये पुरानी रंजिश का मामला है जिसमें कई साल पहले हत्या तक हो चुकी है।कहा तो यहां तक जा रहा है कि पत्रकारिता की आड़ में खुद को बचाने के लिए ही अनुज चौधरी सहारा समय उत्तर प्रदेश के गाजियाबाद के स्ट्रिंगर बन गये थे। पुलिस सूत्रों के अलावा गाजियाबाद के ही पत्रकारों का एक गुट का मानना है कि अनुज चौधरी पर होने वाला हमला पुरानी रंजिश, कथिततौर पर प्लॉट और ज़मीन पर कब्जे के अलावा स्थानीय राजनीतिक प्रतिद्विंदता का नतीजा है। जिसमें पहले भी हत्या तक हो चुकी है। ऐसे में कुछ पत्रकारों का तो यहां तक कहना है कि पुलिस के ऊपर यह आरोप लगाना कि पुलिस पत्रकारों की सुरक्षा को लेकर गंभीर नहीं है गलत है। बहरहाल जितने मुंह उतनी ही बातें..! लेकिन इतना तो तय है कि जिस जोखिम के बीच पत्रकारों को काम करना होता है ऐसे में अनुज चौधरी पर होने वाले हमले को लेकर पुलिस पर सवाल उठना लाजिमी ही है।
ठीक इसी तरह हाल ही में जीडीए के कथित मामले में कुछ पत्रकारों के खिलाफ दर्ज एफाईआर को लेकर भी गाजियाबाद प्रशासन द्वारा उत्पीड़न और पत्रकारों के दमन के तौर पर देखा रहा है। जीडीए मामले के बाद एक बार फिर गाजियाबाद के पत्रकारों को 2011 में एक पत्रकार के खिलाफ तत्कालीन जिलाधिकारी हृद्येश कुमार के इशारे पर अपने निचले अधिकारियों को टूल की तरह इस्तेमाल करते हुए किये गये उत्पीड़न की यादें ताजा हो गईं होंगी। भले ही उस मामले में गाजियाबाद के कुछ पत्रकारों ने बाकायदा जिला प्रशासन की दल्लई करते हुए उस पत्रकार का साथ न दिया हो, लेकिन गाजियाबाद में पहली बार किसी पत्रकार के उत्पीड़न पर सर्वदलीय प्रदर्शन हुआ था। जिसमें सतपाल चौधरी, केसी त्यागी, भारतेंदु शर्मा जैसे कई नेताओं ने मायावती सरकार और गाजियाबाद प्रशासन को आड़े हाथों लिया था, और मामला हाइकोर्ट तक जा पहुंचा था। जिसके बाद गाजियाबाद प्रशासन के एक टूल के तौर आरोप लगाने वाले व्यक्ति की गिरफ्तारी के अलावा कई अफसरों के वारंट तक जारी हो गये थे। ये अलग बात है कि उस मामले में पत्रकार का साथ देने के लिए कुछ ऐसे कथित पत्रकार भी प्रशासन के दबाव में देखे गये थे, जिनका काला चिठ्ठा प्रशासन के पास था। बहरहाल आज फिर वही स्थिति है और गाजियाबाद के पत्रकारों की एकजुटता का इम्तिहान है।
इस मामले पर गाजियाबाद के पत्रकारों ने गाजियाबाद प्रशासन द्वारा ही उपलब्ध कराए गये मीडिया हाउस में प्रशासन का विरोध दर्ज कराया है। साथ ही आंदोलन तक की चेतवानी दी है। इतना ही नहीं कुछ पत्रकारों का यहां तक दावा था कि हमारे पास जीडीए और डीएम के खिलाफ इतना मैटिरियल है कि पत्रकारों के खिलाफ की गई शिकायत वापस लेना प्रशासन की मजबूरी बन जाएगा। इस मामले पर जब अनुराग चढ्ढा से फोन पर बात करने की कोशिश की गई तो उन्होने फोन नहीं उठाया, और दूसरे लोगों से बात नहीं ह सकी और उनका पक्ष नहीं मिल सका।
लेकिन इस मामले पर डीएम और जीडीए वीसी साहिबा से फोन पर बात की गई तो उनका कहना था कि हमने नियामानुसार कार्रवाई की है। साथ ही डीएम और जीडीए वीसी रितु महेश्वरी का कहना था कि इस मामले की पूरी जांच और स्थानीय पुलिस की मदद से कुछ पत्रकारों की भी जांच की जाएगी, कि आखिर उनकी आमदनी के क्या स्रोत है। साथ ही कई कई साल तक बिना सेलरी के काम करने वाले पत्रकारों की मोटी कमाई के रास्ते क्या है। दरअसल उनका इशारा शायद इस तरफ था कि पिछले काफी समय सहारा के मालिक के जेल में रहने के बाद सहारा में सैलरी न मिलना और कई चैनलों द्वारा सैलरी न दिये जाने के बावजूद कुछ पत्रकारों की कमाई के क्या स्रोत हैं। इस मामले पर एसपी सिटी से जब बात की गई तो उनका कहना था नियमानुसार कार्रवाई की जाएगी। मामला दर्ज है, जांच की जाएगी ज़ररूत पड़ी तो गिरफ्तारी भी की जा सकती है, लेकिन पत्रकारों के दबाव में पुलिस काम नहीं करेगी।
बहरहाल एक बार फिर यही सवाल उठ रहा है कि आख़िर गाजियाबाद में पत्रकारिता की गरिमा कैसे बचे ? अगर प्रशासन और पुलिस इसी तरह दमन करता रहेगा और पत्रकारों पर जानलेवा हमले होते रहेंगे तो यक़ीनन मीडिया जगत में बेचैनी बढ़ेगी। लेकिन साथ ही पत्रकारों को भी सोचना होगा कि चाहे एक अख़बार में विज्ञापन घोटाला करने वाले पत्रकार के खिलाफ उसके ही अखबार द्वारा गाजियाबाद के पुलिस से की गई शिकायत का कथित मामला हो या फिर मेरठ रोड औधोगिग क्षेत्र में उगाही के रकम के साथ रंगे होथों पकड़े गये एक नामी चैनल के पत्रकार का कथित मामला हो या फिर हंसराज हंस और आसाराम के खिलाफ शिकायत दर्ज कराने का डर दिखाकर उगाही किये जाने का कथित मामला हो या फिर कई कई साल से बिना सैलरी के ही सिर्फ उगाही के दम पर कमाई करने वाले कुछ कथित पत्रकार हों, ये सब भी पत्रकारिता की गरिमा के लिए बड़े सवाल हैं? इतना ही नहीं हम पत्रकारों भी इन आरोपों से बचना चाहिए कि गाजियाबाद प्रशासन के कुछ अफसरों की शह पर प्रशासन द्वारा फ्री में उपलब्ध कराए कराए गये मीडिया हाउस में प्रेस वार्ता के नाम पर कई कई हजार रुपए लेने वाले कुछ पत्रकारों की कथित कमाई कौन कौन बांट कर खाता है?
साथ ही इस सबके अलावा सबसे बड़ी ज़रूरत इस बात की है कि खुद पत्रकारों की एकता कैसे बनी रहे? फ़र्ज़ी पत्रकारों के अलावा सबसे बड़ी चुनौती ये भी है कि एक दूसरे तो नीचा दिखाने और ख़ुद को बड़ा पत्रकार बताने वाले अपने गिरेबांन में झांके कि आख़िर उनको पत्रकारिता का “पी” भी आता है कि नहीं!
सच्चाई ये भी है कि अगर पत्रकारों में एकजुटता हो गई तो किसी प्रशासन की ये हिम्मत नहीं की नाजायज़ तौर पर किसी सच्चे पत्रकार को उत्पीड़न कर सके।