Video of a child trying to wake up his dead mother at muzaffarpur Bihar raolway station
रेलवे प्लेटफार्म पर मृत मां को जगाने की कोशिश कर रहे बच्चे की तस्वीर ने नए भारत के चेहरे से नकाब हटा दिया है। प्लेटफार्म पर गाड़ी खड़ी है, महिला के असहाय परिवार वाले हैं और तमाशबीन भी, लेकिन रेल विभाग नहीं है, सरकार नहीं है। गरीब भारतीयों के जीवन से सरकार का गायब हो जाना उस महाकथा को बयां करता है जो पिछले छह सालों में प्रधानमंत्री मोदी ने बुनी है।
वैसे तो लॉकडाउन के बाद उजड़ गई अपनी दुनिया को फिर से बसाने और जीवन बचाने की आशा में सैकड़ों मील चल रही भीड़ ने मोदी के तंत्र की असलियत सामने ला दी थी, लेकिन मोदी के दूसरे कार्यकाल का पहला साल पूरा होने के ठीक पहले आई अबोध बच्चे की सदा के लिए सो गई मां की चादर हटाने की कोशिश वाली इस तस्वीर ने उसे पूरी तरह नंगा कर दिया है। हालांकि सालाना जलसे की याद दिलाने के लिए हुई मुनादी को देख कर लगता नहीं है कि मोदी सरकार को इससे कोई फर्क पड़ा है।
ऐसा नहीं है कि मोदी-तंत्र पिछले छह सालों में तैयार हो गया है। भूमंडलीकरण और उदारीकरण की नीतियों ने इसके लिए ईंट-गारे के सामान नब्बे के दशक में ही जुटा दिए थे, उस पर इमारत बनाने का काम किसी कठोर हाथों से ही हो सकता था। प्रधानमंत्री मोदी ने इस काम को पूरा कर दिया है। नई अर्थव्यवस्था में गरीब लोेगों के लिए कोई कोना नहीं है। इसमें वही लोग काम कर सकते हैं जो आवाज नहीं उठाएं और मालिक की शर्तों पर काम करें। नए किस्म की दास व्यवस्था। इस अर्थव्यवस्था से असंगठित क्षेत्र के मजदूरों और छोटे कारोबारियों को बाहर निकालने का काम तो मोदी सरकार पहले कार्यकाल से ही कर रही थी, सत्ता में दोबारा वापसी ने उसके हौसले बुलंद कर दिए हैं और वह अपने अभियान में और तेजी ले आई है।
कोरोना ने लोगों को बाहर निकालने के काम में मदद तो दे दी, लेकिन उसके दो तरफे वार से मालिक भी गंभीर रूप से घायल है। अर्थव्यवस्था का ढांचा ही चरमरा गया है। अगर असंगठित और संगठित क्षेत्र के कामगार को कोरोना ने बेरोजगार कर दिया है तो बाजार में उपभोक्ता भी नहीं हैं जिसके जरिए उद्योगपति अपना धंधा जीवित रख सके। सरकार के पहले कार्यकाल में ही बेरोजगारी पिछले 45 सालों के रिकॉर्ड स्तर पर पहुंच गई थी, दूसरे कार्यकाल में कोरोना महामारी ने लगातार बढ़ती बेरोजगारी के आंकड़ों को और भी ऊंचा पहुंचा दिया है। लगातार रसातल को जा रही अर्थव्यवस्था को टिकने की जमीन ही नहीं मिल रही है। देश में बेरोजगारों को कोई सामाजिक सुरक्षा है नहीं और खेतिहर मजदूरों को गांव में टिकाए रखने के लिए बने मनरेगा की भी हालत खस्ता है। शहरों से लौटने वाले सभी मजदूरोें को काम देने की क्षमता उसमें नहीं है। वह तो गांव में पहले से ही मौजूद मजदूरों को वायदे के मुताबिक काम नहीं दे पा रहा है, घर लौट आए मजदूरों को कहां से काम दे पाएगा? कोरोना के एक ही झटके से मोदी-तंत्र की नींव हिलने लगी है।
लेकिन मोदी-तंत्र सिर्फ अर्थव्यवस्था नहीं है, यह एक पूरा तंत्र है जो आजादी के आंदोलन के विचारों के आाधार पर खड़े भारतीय लोकतंत्र को जड़ से उखाड़ फेंकना चाहता है। इसे समझना और महसूस करना मुश्किल नहीं है। लोकतांत्रिक संस्थाओं पर मोदी सरकार के लगातार प्रहारों में इसे देखा जा सकता है। अपने पहले कार्यकाल में ही मोदी सरकार ने अपने इरादे जता दिए थे। इस कार्यकाल में वह इस पर कठोरता से अमल कर रही है। पिछले दफे विपक्ष के वजूद को वह नजरंदाज करना चाहती थी, इस कार्यकाल में वह उसे नेस्तानाबूद करने पर ही तुल आई है। राहत की बात यह रही कि विधान सभा के चुनावों में जनता ने उसे बता दिया कि वह उसके इस लोकतंत्र-विरोधी अभियान को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है।
उसने राजस्थान और मध्य प्रदेश में कांग्रेस को जीत देकर यह साफ कर दिया कि कांग्रेस-मुक्त भारत के मोदी के नारे का वह समर्थन नहीं करती है। महाराष्ट्र में भी उसने भाजपा को ताकतवर होने से रोक दिया और आखिरकार उसे सत्ता से बाहर रहना पड़ा । महाराष्ट्र में सरकार बनाने की उसकी असफल कोशिश और मध्य प्रदेश में सरकार गिरा देने के भाजपा के कारनामों से यह साफ हो गया है कि हद में रहने की जनता की हिदायत मानने को मोदी तैयार नहीं हैं। वह कहीं भी, किसी भी विपक्ष को बर्दाश्त करने को तैयार नहीं हैं और उसे किनारे करने के लिए वह किसी भी हद तक जा सकते हैं। लेकिन यह बात सिर्फ संसदीय विपक्ष के लिए ही नहीं लागू होती है। लोकतांत्रिक अधिकारों के लिए लड़ने वाली हर शक्ति के खिलाफ मोदी सरकार का यही रवैया है। यही वजह है कि मोदी के इस कार्यकाल में अमित शाह गृह मंत्री हैं जो गुजरात में पुलिस के राजनीतिक इस्तेमाल के आरोपों से घिरे रहे हैं।
(लेखक राजीव प्रताप सैनी वरिष्ठ पत्रकार हैं, चैनल और अखबारों में सेनाएं दे चुके हैं )