
नई दिल्ली (23 नवंबर 2019)- कौन कहता है कि इतिहास अपने आप को दोहराता नहीं। क्या महाराष्ट्र की राजनीति मे 23 नवंबर 2019 को होने वाली कहानी दोहराई नहीं जा रही। क्या पुत्र मोह में सबसे भरोसेमंद सिपहसालार की अनदेखी राजनीतिक तौर पर घातक साबित नहीं हुई है। क्या शरद पवार ने अजति पवार के मुकाबले बेटी सुप्रिया सुले के लिए जो किया, उसका अंजाम अजित पवार के हाथों यही होना नहीं था।
जी हां बात पुरानी ज़रूर है लेकिन इतनी भी नहीं कि आपको याद ही न आए। महाराष्ट्र के मराठी मानुष के सबसे बड़े अलंबरदार और जननायक, हिंदु हृदय सम्राट बाला साहेब ठाकरे आपको याद नहीं हैं। क्या आपको ये भी याद नहीं कि एक कार्टूनिस्ट से लेकर किंग मेकर का सफर तय करने वाले बाल ठाकरे के एक इशारे पर हज़ारों शिव सैनिक किसी भी कुंए में कूदने का माद्दा रखते थे। लेकिन क्या आपको ये भी याद नहीं कि बाल ठाकरे के राजनीतिक बिसात पर प्यादे से लेकर बादशाहत के सफर में उनके भतीजे और उनकी परछांई राज ठाकरे का भी बेहद ख़ास रोल रहा है। क्या आपको ये भी याद नहीं कि राज ठाकरे के हाव-भाव, उनकी भाषा, उनके तेवर और उनकी राजनीतिक समझ के साथ साथ उनका एग्रेशन बाला साहेब ठाकरे के प्रतिबिंब की तरह ही था।
तो फिर आपको ये भी याद होगा कि बाला साहेब ठाकरे को जब अपना राजनीतिक वारिस घोषित करने की ज़रूरत महसूस हुई तो उनको भतीजे राज ठाकरे की जगह अपना बेटा, अपना ख़ून यानि उद्धव ठाकरे ही याद आए। हांलाकि राज ठाकरे और उद्धव ठाकरे ने कभी बाला साहेब ठाकरे के फैसले पर उंगली नहीं उठाई, लेकिन ये भी सच्चाई है कि मुबंई की धड़कन मानी जाने वाली शिव सेना के सिपहसालार जैसे ही उद्धव ठाकरे घोषित किये गये वैसे ही मुंबई के मराठी मानुष ने महाराष्ट्र नव निर्माण सेना के नाम के एक नये दल का भी चेहरा देखा।
हांलाकि मुबंई में ख़ासतौर से किसी की हिम्मत नहीं थी कि बाला साहेब ठाकरे की शिव सेना की तर्ज पर या उसकी टक्कर पर कोई दल खड़ा कर सके। लेकिन कभी उनके ही सेनापति, विश्वासपात्र और भतीजे राज ठाकरे ने उनके ही पैंतरों के दम पर मनसे यानि महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना को उसी का़डर के दम पर खड़ा कर दिया जो कभी शिव सेवा का कर्मठ कार्यकर्ता हुआ करता था।
ये तमाम बाते आपको याद दिलाने का मक़सद बहुत बड़ा नहीं है। बस इतना बताना है कि शरद पवार भले ही बेहद तेज़ तर्रार, जुगाड़बाज़ और राजनीति की बिसात के जनता के चहेते नेता हों। लेकिन उनके राजनीतिक सफर से अगर उनके ही भतीजे अजित पवार को निकाल दिया जाए तो शायद शरद पवार का वज़न उतना न रहे जिनता 22 नवंबर 2019 की रात तक था। लेकिन पिछले कुछ दिनों से ख़ासतौर से जब से शरद पवार की अपनी बेटी, जोकि ख़ुद भी सक्रिय राजनीति में हैं, को लेकर शरद पवार का पलड़ा अजित पवार के मुकाबले ज्यादा झुकता देखा गया है। उससे इतना तो साफ था कि अजित पवार भले ही पिता तुल्य शरद पवार की इज्ज़त की ख़ातिर सब कुछ चुपचाप सहते रहें। लेकिन जिस दिन उनको मौका मिलेगा, वो अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा और सपनों को साकार करने से नहीं चूकेंगे।
22 नवंबर 2019 से पहले तक चाहे डिप्टी सीएम का मामला हो या फिर पार्टी पर वर्चस्व की बात अजित पवार भी जानते थे, कि अब नहीं तो कभी नहीं। वैसे भी देश के इतिहास ने अलाउद्दीन खिलजी से लेकर कई मौकों पर देखा है कि कई बार भतीजे और चाचा के बीत सियासी रिश्ते कितने स्थाई रहे हैं।
कुछ लोग ये भी कह रहे है कि कांग्रेस नेतृत्व के फैसला लेने में देरी के कारण या फिर शरद पवार पर भरोसा ज्यादा करने की वजह से शिव सेना के हाथों बीजेपी को शिकस्त जेने का मौका उनके हाथ से निकल गया। लेकिन सच्चाई ये भी है गुजराती जोडी यानि अमित शाह और पीएम नरेंद्र मोदी ने एक बार फिर साबित कर दिया है कि राजनीति संभावानओं के साथ साथ शह और मात का भी खेल है।
और फिर बाला साहेब ठाकरे की शिव सेना के दो फाड़ होते देखने वाली जनता ने शरद पवार के कई ऐसे फैसले भी देखें है जिनको याद करके यही लगता है सियासत में मौका मिले तो चूकना नहीं चाहिए। और हां आज चाचा शिवपाल और उनके भतीजे का ज़िक्र जानबूझ कर नहीं किया।