मुक्ति
करीब 21 सालों की नौकरी के बाद आखिरकार नौकरी से फिलहाल मुक्ति मिल गई। 1998 में सहारा टीवी से शुरू हुआ सफर 2018 में न्यूज18 के दरवाजे पहुंचा और फिर करीब सवा साल बाद मुक्ति का दिन आ गया।
कुछ अपरिहार्य कारणों से मैंने वहां से इस्तीफा दे दिया। दो-चार लोगों को छोड़ मैंने कहीं जिक्र नहीं किया लेकिन लोगों को धीरे-धीरे पता चलने लगा, लिहाजा मैंने सोचा कि आप सबको इसके बारे सादर सूचित कर दूं।
अगर आर्थिक पक्ष की बात छोड़ दें तो इस इस्तीफे के बाद जो शांति और सकून है वो अद्भुत है। शांति और सकून इसलिए नहीं कि घर पर हूं, बल्कि इसलिए क्योंकि नौकरी के दौरान न्यूजरूम के नित बदलते माहौल, उसके व्यर्थ और बेतुके दबाव और साथ ही पत्रकारिता के लगातार बदलते स्तर से जो मन मर-सा गया था उसे थोड़ी राहत मिली।
हम जैसे लोगों तक की पीढ़ी शायद पत्रकारिता में ग्लैमर को देखकर नहीं बल्कि कुछ सिद्धांतों को लेकर आई थी। कम-से-कम मैं अपने बारे में तो ये कह सकता हूं। शायद बिहारी होने, छोटे शहर से आने और उस वक्त स्कूलों में पढ़ाई जाने वाली नैतिक शिक्षा के असर के नाते हम गणेश शंकर विद्यार्थी, राहुल सांकृत्यायन और प्रेमचंद जैसों को आदर्श मान बैठे थे, लेकिन यहां नौकरी में आने के बाद पता चला कि जमाना अब बदल चुका है। बावजूद इस ज्ञान और यथार्थ के हमलोग सालों तक वहीं ठिठके रह गए…. कम-से-कम मन के एक बड़े कोने में या कह लें मन के खुले आंगन में बैठी ये तस्वीर लगातार सालती रही, लेकिन जीविका और फिर परिवार के दायित्व निभाने के सुविधाजनक तरीके के चक्कर में फंसकर उसे अनदेखा करते रहे।
ऐसा नहीं है कि ये ज्ञान पहले नहीं था, ज्ञान और भान पहले भी था लेकिन तब शायद अपने अंदर भी इसकी समीक्षा करने की हिम्मत नहीं थी। आज जब मुक्त हूं, फिलहाल ऐसी कोई योजना नहीं है, तो समीक्षा और विवेचना का समय भी है और हिम्मत भी।
पत्रकारिता के दौरान, खासकर सहारा के दिनों में सीनियर्स और साथियों के साथ मिलकर सार्थक पत्रकारिता भी की, लेकिन तेजी से बदलते सामाजिक परिवेश में जिस तरीके से पत्रकारिता के मूल्य भी बदले, वो कहीं-न-कहीं मन को दुखी भी करते रहे।
इस दौरान ये मेरी ही कमी रही कि मैं कोई और विषय/स्किल नहीं सीख सका जिससे कि आजीविका का कोई दूसरा साधन अपना पाता।
बहरहाल, 21 साल के इस लंबे सफर के लिए दोनों संस्थानों (सहारा टीवी और न्यूज18) के साथ ही सभी वरिष्ठों और साथियों का बहुत-बहुत आभार जिन्होंने पूरे सहयोग और मान-सम्मान के साथ मेरा साथ दिया।
आजीविका की जरूरत सबको है, मुझे भी, लेकिन कोशिश है कि अब फिर से समाचार के इस अजीबोगरीब खेल में शामिल न होऊं (या क्या पता होना ही पड़े) और उस नए विषय पर काम शुरू करूं जिसे पिछले 3-4 वर्षों में सीख सका हूं।
आप सबों का सादर आभार।
(प्रताप शील जी की फेसबुक वॉल से बगैर पूछे.. बिना साभार…. प्रताप शील का नाम प्रतिभाशील भी होता तो कोई दिक़्क़त नहीं थी। एक भाई के नाते एक साथी के नाते सहारा में कई साल साथ काम किया बेहद प्रेम और सम्मान का आभार। मीडिया के एक सफल सफर को जीने वाले प्रताप शील को बेहद बधाई।)