नई दिल्ली(16 नवंबर 2019)- नारद काल से लेकर आज़ादी की जंग हो या फिर समाज का कोई भी दौर पत्रकारिता एक मिशन थी। लेकिन धीरे धीरे मिशन से कमीशन और व्यापार तक के सफर में धनाड्यों के हाथों अब पत्रकारिता के सिपाही मानो बेगार कर रहे हैं। खांटी पत्रकार जिनके घोटालों के ख़िलाफ अपनी क़लम की धार पैनी करते थे आज उन्ही के इशारे पर स्कैम्स को लाभ और हानि की नज़र से तोल रहे हैं। बहरहाल प्रेस डे पर सिर्फ आज भर के लिए इस विषय पर चर्चा करना मानो रिवायत भी है और मजबूरी भी।
सर्कस के रिंग में रस्सी पर संतुलन बनाने वाली छोटी बच्ची या फिर उसी रिंग में शेरों को अपनी छड़ी पर नचाने वाले रिंग मास्टर की तरह पत्रकारिता भी सूचानाओं या संदेशों को सुधारवादी शिक्षक की तरह दिलचस्पी बनाते हुए अवाम तक पहुंचाने की कला है। ठीक सर्कस के दर्शकों की तरह रस्सी पर सांसे अटकाए बच्ची की धड़कनों को नज़रअंदाज़ करना या फिर शेरों के बीच जान जोखिम में डाल रहे रिंग मास्टर के साहस पर टीका टिप्पणी और तालियों का फैसला सिर्फ दर्शक के ही पास होता है।
बेहद जोखिम के बाद कोई बड़ी ख़बर आप तक पहुंचाने वाले पत्रकार को जब महीने के अंत में सैलरी के लिए लंबा या अंतहीन इंतजार करना पड़ता है तो वह अपने दर्शक या पाठक की सराहना या अवहेलना को भी समझ नहीं पाता।
बहरहाल 16 नवंबर नेशनल प्रेस डे के तौर पर आज भी मनाया भले ही न जा रहा हो लेकिन याद ज़रूर किया जा रहा है। ऐसे में पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने (बल्कि संभवत: उनकी ओर से उनके पी.ए ने) घर बैठे एक ट्वीट (अंग्रेजी में चिडियों का चहचहाना जैसा) किया है, कि पत्रकारों को निडर होकर काम करना चाहिए। दिल्ली से लेकर ख़ुद कोलकाता तक सबको मालूम है कि सरकारें पत्रकारो को कितना और किस हद तक निडर या बेख़ौफ रखना चाहतीं है। ऐसे में पूरे पत्रकार समाज की ओर से ममता दी का धन्यवाद और घर बैठे इस हौंसला अफज़ाई का सम्मान।
हांलाकि पिछले कुछ दिनों से पश्चिम बंगाल में सब कुछ ऐसे ही शांत चल रहा है जैसे कि अचानक अशांत दिखने लगा था। लेकिन इस सबके बावजूद ममता जी की चार लाइनों से कलम के निहत्थे सिपाही में साहस फूंकना पत्कारिता जगत के लिए सराहनीय क़दम है। बस ममता दीदी ये और क्लीयर कर देंती कि केंद्र सरकार से ज़ु़ड़ी ख़बरों पर ही निडर होकर कां करना है या फिर पश्चिम बंगाल के लिए भी यही पैमाना है।
उधर नेशनल प्रेस डे पर उपाष्ट्रपति वैंकेया नायडू ने भी अपने विचार रखे हैं। वेंकैया नायडू का कहना है कि पहले के मुकाबले अब खबरों में ख़बरों से ज्यादा विचारों का मिश्रण देखा जाता है। उनके मुताबित सबसे बड़ी यही समस्या है। उनका कहना है कि पहले खबरें सिर्फ खबरें होती थीं यानि खबरों में कुछ मिलावट नहीं होती थी। हालांकि उन्होंने मीडिया की तारीफ भी करते हुए कहा कि 1780 में भारत में पहले अखबार जेम्स ऑगस्टस हिक्की द्वारा बंगाल गजट के समय से ही प्रेस लोगों को मजबूत बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है। साथ ही उन्होंने ये भी कहा कि संवेदनशील खबरों को आदेश के अनुसार चलाना चाहिए और संवदेनशील खबरों का मतलब संवेदनशील होना चाहिए। उन्होंने कहा कि बिजनेस ग्रुप, राजनीतिक पार्टियां और कई जाने-माने व्यक्तित्व खबरों को देखने के लिए न्यूज चैनल देखते हैं या फिर अखबार पढ़ते हैं। अपनी रुचि के हिसाब से सभी खबरों को देखते या पढ़ते हैं, लेकिन वर्तमान स्थिति में मीडिया के मूल्यों में गिरावट आ रही है। मीडिया पर राजनीतिक असर पर बोलते हुए उन्होने कहा कि कई राजनीति पार्टियों ने खुद का अखबार या न्यूज चैनल शुरू किया हुआ है। जिससे उन्हें किसी भी प्रकार का नुकसान नहीं होने के बारे में कहा जाता है। ऐसे में उन्हें खुद यह समझना चाहिए कि वह क्या सही है और क्या गलत है। उप राष्ट्रपति ने कहा कि आप मुझसे पूछ सकते हैं कि क्या राजनीतिक पार्टियों को अपना अखबार चलाने का अधिकार है। तो इसके जवाब में उन्होने हां कहा, लेकिन उपराष्ट्रपति का मानना है कि ऐसी पार्टियों के अखबार के नीचे उनकी पार्टी का नाम लिखा होना चाहिए। जिससे लोगों को सही जानकारी मिले।
बहरहाल 16 नवंबर यानि नेशनल प्रेस डे के मौके पर हमको ये भी याद रखना चाहिए कि समाचार चैनल की स्क्रीन या फिर समाचार पत्र एक ऐसी आनस्वर शीट यानि उत्तर पुस्तिका है जिसके लिए अनगिनत एग्जाम्नर्स और अनगिनत समीक्षक हर वक़्त नज़रे गड़ाए बैठे रहते हैं। ऐसे में ख़बर को ख़बर की तरह समाजहित में बिना तथ्यों को तोड़े-मरोड़े या बढ़ा-चढ़ा कर, घटाकर, बदलकर या सनसनी फैलाने से बचते हुए समाज लिए हितकारी बनाना ही सल पत्रकारिता है।
दरअसल प्रेस की आज़ादी उसकी सुरक्षा,उसके आदर्शों को क़ायम करने के मक़सद से 4 चार जुलाई 1966 को भारत में प्रेस परिषद की स्थापना की गई जो 16 नंवबर 1966 से अपने कार्यों विधिवत शुरू कर पाई। और इसी वजह से आज भी इस दिन यानि 16 नवंबर को हर साल राष्ट्री य प्रेस दिवस के तौर पर पहचाना जाता है। अगर पूरी दुनियां की बात करें तो लगभग 50 देशों में प्रेस परिषद या मीडिया परिषद मौजूद हैं।
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