नई दिल्ली (27 दिसंबर 2017)-किसी ज़माने में ग़ालिब का अंदाज़ ए बयां दुनियां के लिए मिसाल था। लेकिन आज के दौर में गूगल भी अपने अंदाज़ के लिए कम सुर्ख़ियां नहीं बटोरता। उर्दू और फरासी बल्कि यूं कहें कि फारसी और उर्दू के मशहूर शायर मिर्ज़ा असदउल्लाह बेग ख़ान उर्फ मिर्जा़ ग़ालिब को लेकर गूगल ने जो किया वो न सिर्फ क़ाबिल ए तारीफ है बल्कि आज की पीढ़ी जो कि पूरी तरह डिजिटल और सोशल मीडिया से जुड़ती जा रही है उसको भी मिर्ज़ा से रू ब रू करा दिया है। दरअसल गूगल ने Mirza Ghalib’s 220th Birthday की हैडिंग से अपना डूडल बनाया है। जी हां गूगल ने मिर्जा गालिब की 220वीं यौम ए पैदाएश यानि जयंती पर उन्हें अपना डूडल समर्पित किया है। मुग़लिया सलतनत की कमज़ोरी के दौर में पैदा हुए मिर्ज़ा ग़ालिब को अंग्रेज़ी शासन की शुरुआत और मुगल काल का आख़िरी अज़ीम शायर कहा जाए तो ग़लत न होगा। जब गालिब छोटे थे तो ईरान से दिल्ली आए कुछ विद्वानों से ग़ालिब ने फ़ारसी सीखी थी। अगर बात उनके हुलिए की करें तो लंबा सा चोगा जैसा कुर्ता, चौड़ा पायजामा, सिर पर ऊंची और लंबी सी टोपी और पांव में चर्र-मर्र करती सलीम शाही जूतियां। यही तो पहचान थी दिल्ली दरबार के शाही शायर मिर्जा असदउल्लाह खां गालिब की। गालिब को सिर्फ शायरी से जोड़ा जाए तो ग़लत होगा क्योंकि उनके ख़त उर्दु और फारसी अदब बेमिसाल शाहकार है। मिर्जा ग़लिब एक नाम ही नहीं बल्कि फारसी और उर्दू शायरी का वो मुकाम था जिसको हासिल करने के लिए लोग आज भी तरसते हैं।
बेहद मुफलिसी और आम सी ज़िंदगी जीना वाले गालिब को काफी मुशक़्क़त के बाद आखिरी मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर से दबीर-उल-मुल्क और नज़्म-उद्दौला जैसे खिताब हासिल हुए। चूंकि जफर खुद भी शायर थे लिहाजा वो शायरों के क़दरदां थे। 1850 में शहंशाह बहादुर शाह ज़फ़र द्वितीय ने मिर्ज़ा गालिब को दबीर-उल-मुल्क और नज़्म-उद-दौला के खिताब से नवाज़ा। बाद में उन्हे मिर्ज़ा नोशा का खिताब भी मिला। मिर्ज़ा शहंशाह के दरबारी ए ख़ुसूसी यानि एक महत्वपूर्ण दरबारी थे। उन्हे बहादुर शाह ज़फर दोयम यानि द्वितीय के बड़े बेटे फ़ख़्र-उद-दीन मिर्ज़ा का उस्ताद भी बनाया गया था। एक दौर में मिर्ज़ा मुगल दरबार के शाही इतिहासविद भी थे। भारत और पाकिस्तान के अलावा ईरान और पूरी दुनियां में फारसी और उर्दू अदब के शाहकार मिर्ज़ा गालिब की एक बात बेहद खास थी। वो शेर कहते और कपड़े में गिरह लगाते जाते थे, बाद में गिरह खोलते जाते और सभी को दर्ज कर लेते थे।
पहले गालिब फारसी में ही अपने शेर कहते थे। इसके अलावा उनका तखल्लुस भी पहले असद हुआ करता था, लेकिन बाद में उन्होंने इसे बदलकर गालिब रख लिया था। मिर्ज़ा ग़ालिब के बुज़ुर्ग कई जगहों से होते हुए हिंदुस्तान पहुंचे थे। गालिब को फारसी की अच्छी समझ होने की एक वजह ये भी थी। मिर्ज़ा के के पुराने दस्तावेजों से पता चलता है कि कभी पेंशन तो कभी वजीफा तो कभी किसी दूसरे काम के लिए उन्हें आगरा से लेकर कोलकाता तक उन्होने कई यात्राएं की थीं। गालिब उस ज़माने के शायर थे जब उस्ताद ज़ौक़ और मियां मोमिन के भी जलवे हुआ करते थे। उस्ताद ज़ौक़ का उस वक्त न सिर्फ दिल्ली में बल्कि बादशाह के यहां भी बड़ा रुतबा था। ये अलग बात है कि इन दोनों की कभी नहीं बनी। यही वजह थी कि अकसर एक दूसरे पर कसीदे पढ़ने से भी दोनों बाज नहीं आते थे। दौर शायरों का था तो एक दूसरे से मज़े लेने का ज़रिया भी उनकी शायरी ही हुआ करती थी। एक बार ज़ौक़ पालकी पर जा रहे थे और मिर्जा जुआ खेल रहे थे। तभी उनका ध्यान किसी ने ज़ौक़ की तरफ करवाया तो मिर्ज़ा ने कहा “बना है शाह का मुसाहिब, फिरे है इतराता”। इस पर ज़ौक़ ख़फा हो गए। लिहाजा बादशाह के सामने उन्हें नीचा दिखाने की जुगत लगाई गई। उन्हें एक रात शाही मुशाएरे में बुलाया गया और उस्ताद ज़ौक़ ने मिर्जा के शेर की कुछ पक्तियों पर अपना ऐतराज़ दर्ज कराया। लेकिन मिर्ज़ा भी कम न थे। उन्होंने झट से बादशाह से कहा कि वो उनकी नई ग़ज़ल का मक़्ता है। इस पर बादशाह ज़फर ने ग़ालिब को वो ग़ज़ल पेश करने का हुक्म दिया। गालिब ने उस वक्त जो नज्म पेश की वो कुछ यूं थी।
हर एक बात पे केहते हो तुम के तू क्या है,
तुम्ही कहो यह अंदाज़े गुफ्तगू क्या है।
चिपक रहा है बदन पर लहू से पैराहान
हमारी जेब को अन हाजत-ए -रफू क्या है
जला है जिस्म जहां दिल भी जल गया होगा
कुरेदते हो जो अब राख जुस्तजू क्या है
रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं कायल
जब आंख से ना टपका तो फिर लहू क्या है
बना है शाह का मुह्सहिब फिरे है इतराता,
वरना इस शहर में ‘ग़ालिब’ की आबरू क्या है।।
यूं तो टीवी सीरियल हो या फिल्में मिर्ज़ा ग़ालिब पर दोनों की ही जगह काम हुआ है। लेकिन सच्चाई यही है कि जितना होना था उतना शायद नहीं हुआ। बॉलीवुड में 1954 में बनी सोहराब मोदी की फिल्म ‘मिर्जा गालिब यादगार थी, जबकि टीवी पर 1988 में गुलज़ार का शाहकार मिर्जा गालिब बेमिसाल रहा है।
यूं तो ग़ालिब मुफलिसी के मारे थे लेकिन कभी शराब और जुए के बीच मुफलिसी को मिर्ज़ा ने आने नहीं दिया। आलम ये था कि जेब में पैसा आते ही मिर्ज़ा शराब खरीद लाते थे। कहा जा ता है कि ख़ाली प्याले और बोतलों को भी वो बामुश्किल ही घर से बाहर फिंकवाते थे। कहा ये भी जाता है कि भले ही उनको मस्जिद की सीढि़यां चढ़ते हुए आफत आती हो लेकिन कर्ज़ के लिए बारबार सूदखोरों के दर पे चक्कर लगाने में वो नहीं थकते थे। खु़द गालिब ने ही इन लाइनों से अपना परिचय दिया है…
हम वहां हैं जहां से हम को भी
कुछ हमारी ख़बर नहीं आती
मरते हैं आरज़ू में मरने की
मौत आती है पर नहीं आती
काबा किस मुंह से जाओगे ‘ग़ालिब’
शर्म तुम को मगर नहीं आती
ये लाइनें भी उनका ही परिचय है….
हुस्न-ए-माह, गरचे बा-हंगामा-ए-कमाल अच्छा है
उससे मेरा माह-ए-ख़ुर्शीद-ए-जमाल अच्छा है
बोसा देते नहीं और दिल पे है हर लहज़ा निगाह
जी में कहते हैं, मुफ़्त आए तो माल अच्छा है
और बाज़ार से ले आए अगर टूट गया
साग़र-ए-जाम से मेरा जाम-ए-सिफाल अच्छा है
बे-तलब दें तो मज़ा उसमें सिवा मिलता है
वो गदा जिसको ना हो ख़ू-ए-सवाल अच्छा है
उनके देखे से जो आ जाती है मुँह पर रौनक़
वो समझते हैं के बीमार का हाल अच्छा है
देखिए पाते हैं उश्शाक़ बुतों से क्या फ़ैज़ ?
इक ब्राहमण ने कहा है, के यह साल अच्छा है
हम-सुख़न तेशे ने फरहाद को शीरीण से किया
जिस तरह का भी किसी में हो कमाल अच्छा है
क़तरा दरिया में जो मिल जाए तो दरिया हो जाए
काम अच्छा है वो, जिसका माल अच्छा है
ख़िज्र सुल्तान को रखे ख़ालिक़-ए-अकबर सर-सब्ज़
शाह के बाग़ में यह ताज़ा निहाल अच्छा है
हमको मालूम है जन्नत की हक़ीक़त लेकिन
दिल के ख़ुश रखने को ग़ालिब’ यह ख़याल अच्छा है
मज़हबों की दीवार से ऊपर अगर बात इंसानियत की हो तो यहां भी मिर्ज़ा का जलवा क़ायम है। उनका कहना है कि…
बस कि दुश्वार है हर काम का आसां होना
आदमी को भी मयस्सर नहीं इंसां होना
गिरियां चाहे है ख़राबी मेरे काशाने की
दर-ओ-दीवार से टपके है बयाबां होना
वाए, दीवानगी-ए-शौक़ कि हरदम मुझको
आप जाना उधर और आप ही हैरां होना
जल्वा अज़-बस कि तक़ाज़ा-ए-निगह करता है
जौहर-ए-आईना भी चाहे है मिज़गां होना
इशरते-क़त्ल गहे-अहले-तमन्ना मत पूछ
ईद-ए-नज़्ज़ारा है शमशीर का उरियां होना
ले गये ख़ाक में हम दाग़-ए-तमन्ना-ए-निशात
तू हो और आप बसद-रंग गुलिस्तां होना
इशरत-ए-पारा-ए-दिल ज़ख़्म-ए-तमन्ना ख़ाना
लज़्ज़त-ए-रेश-ए-जिग़र ग़र्क़-ए-नमकदां होना
की मेरे क़त्ल के बाद उसने जफ़ा से तौबा
हाय उस ज़ूद-पशेमां का पशेमां होना
हैफ़ उस चार गिरह कपड़े की क़िस्मत ‘ग़ालिब’
जिसकी क़िस्मत में हो आशिक़ का गिरेबां होना
तमाम उम्र अपने आंगन में एक बच्चे की किलकारी को तरसते रहे मिर्ज़ा का जीवन उदासियों और मुफलिसी से भले ही भरा हो लेकिन उनके चाहने वालों की कमी न थी। दिल्ली की गलियों में उनकी जब चर्चा होती है तो उनके इश्क़ के चर्चे भी रहे। उस दौर में मिर्जा के इश्क में एक नाचने वाली जबरदस्त तरह से पागल थी। अक्सर उसकी महफिल में मिर्जा की नज्म सुनाई देती थी। इंतिहा तो तब हो गई जब वहां के कोतवाल की नाराज़गी ने मिर्ज़ा से दिल्ली की गलियां ही छुड़वा दीं थी। बच्चे की ख़्वाहिश हो या फिर दूसरी परेशानियां ग़ालिब ने अपनी शायरी से अपने दर्द को दुनियां से साझा किया है….
हजारों ख्वाहिशें ऐसी कि हर ख्वाहिश पे दम निकले
बहुत निकले मेरे अरमां, लेकिन फिर भी कम निकले
ग़ालिब जब लिखते थे तो मानो इतिहास रचते थे। उनकी हर लाइन हर शेर यादगार रहता है चाहे अपना अंदाज़ ए बया ह ोया फिर दर्द ग़ालिब तो ग़ालिब ही थे। उन्होने अपने बारे में ख़ुद लिखा…..
“हैं और भी दुनिया में सुख़न्वर बहुत अच्छे
कहते हैं कि ग़ालिब का है अन्दाज़-ए बयां और”
इतना ही नहीं उनकी शायरी मिर्ज़ा के दर्द को बयां करने के लिए काफी है ….
दिल ही तो है न संग-ओ-ख़िश्त दर्द से भर न आये क्यों
रोएंगे हम हज़ार बार कोई हमें सताये क्यों
दैर नहीं, हरम नहीं, दर नहीं, आस्तां नहीं
बैठे हैं रहगुज़र पे हम, ग़ैर हमें उठाये क्यों
जब वो जमाल-ए-दिलफ़रोज़, सूरते-मेह्रे-नीमरोज़
आप ही हो नज़ारा-सोज़, पर्दे में मुँह छिपाये क्यों
दश्ना-ए-ग़म्ज़ा जांसितां, नावक-ए-नाज़ बे-पनाह
तेरा ही अक्स-ए-रुख़ सही, सामने तेरे आये क्यों
क़ैदे-हयातो-बन्दे-ग़म अस्ल में दोनों एक हैं
मौत से पहले आदमी ग़म से निजात पाये क्यों
हुस्न और उसपे हुस्न-ज़न रह गई बुल्हवस की शर्म
अपने पे एतमाद है ग़ैर को आज़माये क्यों
वां वो ग़ुरूर-ए-इज़्ज़-ओ-नाज़ यां ये हिजाब-ए-पास-वज़अ़
राह में हम मिलें कहां, बज़्म में वो बुलायें क्यों
हां वो नहीं ख़ुदापरस्त, जाओ वो बेवफ़ा सही
जिसको हो दीन-ओं-दिल अज़ीज़, उसकी गली में जाये क्यों
“ग़ालिब”-ए-ख़स्ता के बग़ैर कौन-से काम बन्द हैं
रोइए ज़ार-ज़ार क्या, कीजिए हाय-हाय क्यों
शेर ओ अदब के चाहने वाले ख़ासतौर से अपने चाहने वालों के दिलों पर सैंकड़ो साल से राज करने वाले मिर्ज़ा असद उल्लाह ख़ान ग़ालिब यूं तो हमेशा अपने शेरों से मौजूद रहेंगे। लेकिन अफसोस 15 फरवरी, 1869 को दुनियां का ये अज़ीम शायर दुनियां ए फानी से कूच कर गया। आज भी उनकी यादगार उनकी क़ब्र दिल्ली के निजामुद्दीन औलिया के मक़बरे के पास मौजूद है।
हुए मर के हम जो रुस्वा हुए क्यूं न ग़र्क़-ए-दरिया
न कभी जनाज़ा उठता न कहीं मज़ार होता
ये मसाईल-ए-तसव्वुफ़ ये तिरा बयान ‘ग़ालिब’
तुझे हम वली समझते जो न बादा-ख़्वार होता
तुम सलामत रहो हजार बरस
हर बरस के हों दिन पचास हजार
निकलना ख़ुल्द से आदम का सुनते आए हैं लेकिन
बहुत बे-आबरू हो कर तिरे कूचे से हम निकले
क़र्ज़ की पीते थे मय लेकिन समझते थे कि हां
रंग लावेगी हमारी फ़ाक़ा-मस्ती एक दिन
हैं और भी दुनिया में सुख़न-वर बहुत अच्छे
कहते हैं कि ‘ग़ालिब’ का है अंदाज़-ए-बयाँ और
हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले
बहुत निकले मिरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले
इशरत-ए-क़तरा है दरिया में फ़ना हो जाना
दर्द का हद से गुज़रना है दवा हो जाना
मोहब्बत में नहीं है फ़र्क़ जीने और मरने का
उसी को देख कर जीते हैं जिस काफ़िर पे दम निकले
उन के देखे से जो आ जाती है मुँह पर रौनक़
वो समझते हैं कि बीमार का हाल अच्छा है
न था कुछ तो ख़ुदा था कुछ न होता तो ख़ुदा होता
डुबोया मुझ को होने ने न होता मैं तो क्या होता
इशरत-ए-क़तरा है दरिया में फ़ना हो जाना
दर्द का हद से गुज़रना है दवा हो जाना
भले ही अपने लिए मिर्ज़ा को अपनों से या दुनियां से कुछ मिला या नहीं लेकिन उन्होने अपनो के लिए हमेशा अपने जज़्बात अलग ही अंदाज़ में इज़हार किया….
तुम सलामत रहो ह़जार बरस
हर बरस के हों दिन पचास हज़र
निकलना ख़ुल्द से आदम का सुनते आए हैं लेकिन
बहुत बे-आबरू हो कर तिरे कूचे से हम निकले
क़र्ज़ की पीते थे मय लेकिन समझते थे कि हां
रंग लावेगी हमारी फ़ाक़ा-मस्ती एक दिन
हैं और भी दुनिया में सुख़न-वर बहुत अच्छे
कहते हैं कि ‘ग़ालिब’ का है अंदाज़-ए-बयाँ और
हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले
बहुत निकले मिरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले
इशरत-ए-क़तरा है दरिया में फ़ना हो जाना
दर्द का हद से गुज़रना है दवा हो जाना
मोहब्बत में नहीं है फ़र्क़ जीने और मरने का
उसी को देख कर जीते हैं जिस काफ़िर पे दम निकले
उन के देखे से जो आ जाती है मुँह पर रौनक़
वो समझते हैं कि बीमार का हाल अच्छा है
न था कुछ तो ख़ुदा था कुछ न होता तो ख़ुदा होता
डुबोया मुझ को होने ने न होता मैं तो क्या होता
इशरत-ए-क़तरा है दरिया में फ़ना हो जाना
दर्द का हद से गुज़रना है दवा हो जाना
कुल मिलाकर इतिहास के पन्नो से और अदब की दुनियां से मिर्ज़ा ग़ालिब को फरामोश करना कोई आसान काम नहीं। ग़ालिब के शेर ग़ालिब के ख़तूत हमेशा हमारे साथ रहेंगे। मिर्ज़ा ग़ालिब को गूगल ने जिस अंदाज़ में याद किया बल्कि जिस बेमिसाल ख़ूबसूरती से उनको नई पीढ़ी से रू ब रू किया उसके लिए गूगल बेहद मुबारक बाद का मुस्तहिक़ है।
(लेखक आज़ाद ख़ालिद टीवी पत्रकार है डीडी आंखों देखीं, सहारा समय, इंडिया टीवी, इंडिया न्यूज़ समेत कई नेश्नल चैनल्स में महत्वपूर्ण पदों पर कार्य कर चुके हैं वर्तमान में हरियाणा से प्रसारित होने वाले एक चैनल में बतौर चैनल हेड कार्यरत हैं।)