ग़ाज़ियाबाद/नई दिल्ली (14 अगस्त 2017)- 2017 की 14 अगस्त की ये शाम कुछ ही देर बाद हम अपनी आज़ादी की वर्षगांठ के जश्न को मनाने के लिए 15 अगस्त की तारीख़ में प्रवेश करेंगे और सुबह को देशभक्ति के फिल्मी गीतों के बीच बड़े बड़े दावों और वादों की झड़ी लगाते हुए नेताओं के देखेंगे।
लेकिन दुनियां के सबसे बड़े लोकतंत्र और अपने प्यारे वतन भारत की आज़ादी की 70वीं सालगिरह मनाते हुए क्या हमने कभी सोचा कि आख़ि हम गुलाम क्यों हुए और फिर ब्रिटिश साम्राज्य जैसी ताक़त के चंगुल से हमको आज़ादी मिली कैसे? साथ ही सबसे बड़ा सवाल ये है कि क्या हमने अपनी आज़ादी या गुलामी के इतिहास से कुछ सीखा या फिर मौजूदा दौर में हम कहीं उन्ही गल्तियों को तो नहीं दोहरा रहे जिनका नुक़सान हमारी कई पीढ़ियों को गुलाम रहकर उठाना पड़ा था।
15 अगस्त 1947 की रात लगभग 12 बजकर 2 मिनट पर हमको अंग्रेजों ने एक आज़ाद देश के तौर पर स्वीकार करते हुए हमारे ऊपर से अपना कंट्रोल खत्म करने का ऐलान कर दिया। लेकिन उसके ठीक चंद मिनट पहले 14 अगस्त की रात 11 बजकर 57 मिनट पर हमारे सीने में अंग्रेज़ों ने ऐसा खंजर मारा कि हमारे दो टुकड़े करते हुए पाकिस्तान नाम का अलग देश बना दिया। यानि हमको आज़ादी से चंद मिनट पहले ही ऐसा ज़ख़्म दिया गया जो कभी नहीं भर सकता। अगर कहा जाए तो गलत न होगा कि इस ज़ख़्म के लिए अंग्रजों की कूटनीति के साथ साथ हम और हमारी सोच किसी हद तक ज़िम्मेदार थी।
बहरहाल हम आज़ाद हुए, विभाजन की तकलीफ पर स्वतंत्रता की ख़ुशी भारी पड़ी और हमने एक नये भारत का सपना लेकर आगे बढ़ने की ठानी, और देश के पहले प्रधानमंत्री के तौर पर पंडित जवाहर लाल नेहरु ने देश को संबोधित करते हुए आगे बढ़ने और नये भारत की निर्माण की बात कही।
उन्होने ट्रिस्ट विद डेस्टिनी यानि नियति से वादा के तौर पर अपना भाषण देते देश को संबोधित किया कि, “कई सालों पहले, हमने नियति से एक वादा किया था, और अब वक़्त आ गया है कि हम अपना वादा निभायें,भले ही पूरी तरह न सही पर बहुत हद तक तो निभायें। आधी रात के वक़्त जब दुनिया सो रही होगी, भारत ज़िंदगी और आज़ादी के लिए जाग जाएगा। ऐसा क्षण आता है मगर इतिहास में विरले ही आता है, जब हम पुराने से युग से बाहर निकल कर नए युग में कदम रखते हैं, जब एक दौर ख़त्म हो जाता है, जब एक देश की लम्बे समय से दबी हुई आत्मा मुक्त होती है। यह संयोग ही है कि इस पवित्र मौक़े पर हम भारत और उसके लोगों की सेवा करने के लिए तथा सबसे बढ़कर मानवता की सेवा करने के लिए समर्पित होने की प्रतिज्ञा कर रहे हैं। आज हम दुर्भाग्य के एक दौर को ख़त्म कर रहे हैं और भारत दोबारा ख़ुद को खोज पा रहा है। आज हम जिस उपलब्धि का उत्सव मना रहे हैं, वो केवल एक क़दम है… नए अवसरों के खुलने का। इससे भी बड़ी विजय और उपलब्धियां हमारी प्रतीक्षा कर रही हैं। भारत की सेवा का अर्थ है लाखों-करोड़ों पीड़ितों की सेवा करना। इसका मतलब है गरीबी, अशिक्षा और अवसरों की असमानता मिटाना। हमारी पीढ़ी के सबसे महान व्यक्ति की यही इच्छा है कि हर आँख से आंसू मिटे। संभवतः ये हमारे लिए संभव न हो पर जब तक लोगों कि आंखों में आंसू हैं, तब तक हमारा काम पूरा नहीं होगा। आज एक बार फिर वर्षों के संघर्ष के बाद, भारत जागृत और स्वतंत्र है। भविष्य हमें बुला रहा है। हमें कहां जाना चाहिए और हमें क्या करना चाहिए, जिससे हम आम आदमी, किसानों और श्रमिकों के लिए स्वतंत्रता और अवसर ला सकें, हम गरीबी मिटाकर, एक समृद्ध , लोकतान्त्रिक और प्रगतिशील देश बना सकें। हम ऐसी सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक संस्थाओं को बना सकें जो हर एक स्त्री-पुरुष के लिए जीवन की परिपूर्णता और न्याय सुनिश्चित कर सके? नेहरू ने कहा कि कोई भी देश तब तक महान नहीं बन सकता जब तक उसके लोगों की सोच या कर्म संकीर्ण है”।
राजनीतिक पार्टियों और बदलते नेतृत्व से हटकर मन की बात, संचार माध्यमों और इलैक्ट्रॉनिक की क्रांति के दौर में 70 साल पहले कहे गये नेहरु जी के ये शब्द आज भी बेहद प्रासांगिक और ज़रूरी हैं। अगर कहा जाए कि आज़ाद भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल के ये शब्द देश की मज़बूती के लिए आज भी उतने ही ज़रूरी हैं जितने तब थे।
बहरहाल आज ख़ासतौर से जबकि हम कुछ ही देर में अपनी आज़ादी के 70वें साल में प्रवेश कर जाएंगे। हमको ये देखना होगा कि आज हम जाति वाद, संकीर्ण मानसिकता, राजनीतिक अवसरवाद, सांप्रदायिकता और करप्शन जैसी कई अन्य बीमारियों से जूझ रहे हैं, इतिहास गवाह है कि उसी तरह की सोच और हालात ने हमको गुलाम बनाया था। और सच्चाई ये भी है कि जब तक हमने जाति और धर्म से ऊपर उठकर केवल भारतीय होने और देश का सच्चा सिपाही होने का एहसास अंग्रेजों को नहीं कराया तब हमको आज़ादी नहीं मिली। ये अलग बात है कि कुछ संकीर्ण हिंदु और मुस्लिमों और राजनीतिज्ञों की गंदी सोच ने आख़िरी वक़्त में हमारी कोशिशों को नाकाम करते हुए पाकिस्तान जैसा नासूर हमारे सीने में पेवस्त कर दिया। इसी तरह की सोच से हमको आज भी चौकस रहने और बचने की ज़रूरत है।
मौजूदा दौर में भी कई तरह के व्यापारिक और नये नये विदेशी दोस्तों की तर्ज पर अग्रेज भारत में आए तो थे व्यापार करने। लेकिन धीरे धीरे उनकी ईस्ट इंडिया कंपनी ने हमको न सिर्फ गुलाम बना लिया बल्कि हमारी आर्थिक और सामाजिक हैसियत तक को ख़त्म करके रख दिया था।
आइए आज 14 अगस्त 2017 की इस रात को गुलामी के चंगुल से निकले के सफर और आज़ादी की लड़ाई के सफर को जानने की कोशिश करते है और देखते हैं कि कब क्या हुआ……
अगर देखा जाए तो अंग्रेजों के खिलाफ भारत की आज़ादी का आन्दोलन दो तरह से चलाया गया। एक जो अहिंसक आन्दोलन था और दूसरा सशस्त्र क्रान्तिकारी आन्दोलन। इतिहासकारों की मानें तो भारत की आज़ादी के लिए 1757 से 1947 के बीच जितनी भी कोशिशें हुईं , उनमें आज़ादी का सपना संजोये क्रान्तिकारियों और शहीदों का रोल बेहद उपयोगी और कामयाब साबित हुए। देखा जाए तो भारतीय क्रांतिकारी आंदोलन भारतीय इतिहास का वह स्वर्णिम युग है, जिस दौरान भारत की धरती के प्रति जितनी भक्ति और मातृ-भावना उस युग में थी, उतनी कभी नहीं रही।
कई इतिहासकारों के मुताबिक़ क्रांतिकारी आंदोलन का दौर आमतौर पर सन् 1857 से 1942 तक माना है। लेकिन कुछ के मुताबिक़ इसका समय सन 1757 यानि प्लासी के युद्ध से सन 1961 तक यानि गोवा मुक्ति तक मानना चाहिए। उनका मत है कि सन 1961 में गोवा की आज़ादी के बाद ही भारतवर्ष पूरी तरह से स्वाधीन हो सका है।
इतिहास गवाह है कि भारतीय स्वतंत्रता के सशस्त्र संग्राम की विशेषता यही है कि आज़ादी के मतवाले क्रांतिकारियों के मुक्ति के प्रयास कभी रुके नहीं। क्योकि 1757 से अंग्रेजी हुकूमत के हाथों लूट और भारतीय किसानों, मजदूरों, कारीगरों की बरबादी, धार्मिक, सामाजिक भेदभाव ने जो तेज़ी दिखाई उसी तेज़ी से देश के विभिन्न हिस्सो में विद्रोंह की चिंगारियाँ भी फूटती गईं, जो 1857 में जंग-ए-आजादी के महासंग्राम के तौर पर ज्वालामुखी बन गईं।
सरसरी तौर पर अगर देखा जाए तो प्लासी का युद्ध अंग्रेजों और उस समय के बंगाल के शासक सिराजुद्दौला के बीच सन 1757 में लड़ा गया था। हालांकि ये युद्ध महज़ आठ घण्टे चला और कुल तेईस सैनिक मारे गए, लेकिन इतिहास में इसकी बड़ी अहमियत है। दरअसल युद्ध में सिराजुद्दौला की ओर से मीर जाफर ने गद्दारी की और रॉबर्ट क्लाइव ने उसका जमकर फायदा उठाया। प्लासी-विजय के बाद ही भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी के माध्यम से अंग्रेजी हुकूमत की नींव पड़ गई थी।
सन 1757 में प्लासी के युद्ध में बंगाल का पहला सैनिक विद्रोह नए फौजी नियमों के विरोध में थल सेना की बगावत के बाद हुआ था। जिसमें ब्रिटिश सेना ने युद्ध के बाद विद्रोह को दबा दिया। जो विद्रोही जीवित हाथ लगे, उन्हें तोपों के मुँह से बाँधकर उड़ा दिया गया।
इसके बाद सन 1767 में जंगल महाल विद्रोह हुआ। दरअसल गद्दार मीर जाफर ने बंगाल के कुछ जिलों की जमींदारियां अंग्रेजों को दे दीं थीं। इनमें से कुछ जिलों में अत्याचारों के विरोध में अंग्रेजों के विरोधी की लहर उठ खड़ी हुई, और जंगल महाल के जमींदारों ने अंग्रेजों के ख़िलाफ बग़ावत कर दी। जिसकी वजह से अंग्रेज़ मेजर फर्ग्यूसन ने विद्रोहियों के साथ कई स्थानों पर युद्ध किया। विद्रोही जमींदारों ने जंगलों में छिपकर जमकर मुक़ाबला किया साथ ही झाड़ग्राम के जमींदारों ने भी बग़ावत कर दी। इसमें मेजर फर्ग्यूसन ने बड़े संघर्ष के बाद झाड़ग्राम किले पर अधिकार कर लिया। इस दौरान घाटशीला के जमींदार और उसके चुआड़ सैनिकों ने अंग्रेजी सेना को भारी नुक़सान पहुंचाया। वीरभूम के जमींदार असद खां ने अंग्रेजों से डटकर मुकाबला किया लेकिन हार गया और मिदनापुर, वीरभूम और बर्दवान ज़िले अंग्रेजो की ग़ुलामी में आ गये।
1763 से 1773 तक अंग्रेज़ों को संन्यासी और फकीर विद्रोह का सामना करना पड़ा। दरअसल उस समय बंगाल में संन्यासियों और फकीरों के अलग-अलग संगठन थे। पहले पहल तो इन दोनों संगठनों ने मिलकर अंग्रेजों के साथ संघर्ष किया, लेकिन बाद में उन्होंने अलग अलग होकर बग़ावत कर दी। ये लोग हजारों सैनिकों के साथ अंग्रेजों की सेना पर हमला करते थे। लेकिन यहां भी अंग्रेज़ विद्रोह को दबाने में कामयाब रहे।
इसके बाद 1795 में बंगाल का दूसरा सैनिक विद्रोह हुआ। इसकी वजह थी बंगाल की पंद्रहवीं बटालियन को जहाज़ से युरोप जाने और वहां डच लोगों से युद्ध करने आदेश मिलना। भारतीय सैनकों के जहाज पर चढ़ने से इनकार करने पर कुछ को गोलियों से भून दिया गया और कुछ को तोपों के मुँह से बाँधकर उड़ा दिया गया।
फिर 1803 में वेल्लौर का सैनिक विद्रोह हुआ जिसमें वेल्लौर स्थित मद्रासी सेना ने अंग्रेजों के ख़िलाफ बग़ावत कर दी। विद्रोह नंदी दुर्ग, संकरी दुर्ग आदि स्थानों तक फैल गया।
1718 से 1820 तक अंग्रेज़ों को चुआड़ यानि बंगाल की एक वन्य जाति के विद्रोह से जूझना पड़ा था। चुआड़ वन्य जाति जंगल महाल जिले के भिन्न-भिन्न परगनों में रहती थी। कई जगहों पर चुआड़ वीरों ने अंग्रेजी हुकूमत को उखाड़ फेंका। लेकिन अफसोस अंग्रेजी सेना ने धोखे से इस विद्रोह को दबा दिया।
1821 का नायक विद्रोह भी आज़ादी के इतिहास अहम हिस्सा माना जाता है। जिसमें बगड़ी राज्य की नायक जाति ने भी अंग्रेजों के खिलाफ जंग का बिगुल बजा दिया। अचलसिंह के नेतृत्व में इस जाति ने गनगनी नाम के स्थान पर अंग्रेजी सेना को टक्कर दी। लेकिन एक गद्दार के छल से अचलसिंह को गिरफ्तार कर लिया गया।
1824 का बैरकपुर का प्रथम सैनिक विद्रोह नायक विद्रोह और बहावी विद्रोह के बीच की कड़ी माना जाता है। दरअसल बंगाल रेजीमेंट को आदेश दिया गया कि बैलों की पीठ पर बैठकर हुगली नदी पार किया जाए। लेकिन रेजीमेंट के आदेश मानने से इनकार पर सारे सैनिकों को निहत्था करके भून डाला गया।
इसके बाद 1824 से 1831 तक अंग्रेजों बहावी विद्रोह ने टक्कर दी। जिसमें बहावी आंदोलन धार्मिक चोले में अंग्रेजी शासन के खिलाफ एक बग़ावत थी। इस आंदोलन के नेता सैयद अहमद और तीतू मियां ने अंग्रेजो जमकर टक्कर दी। कई लड़ाइयों में अंग्रेजी फौज हारी लेकिन यह आंदोलन भी दबा दिया गया।
1836 में गुजरात के महीकांत विद्रोह के दौरान यूं तो पूरे गुजरात में अंग्रेजों के ख़िलाफ बग़ावत की हवा चल रही थी। लेकिन महीकांत में यही बग़ावत तेज़ी से भड़की लेकिन बाद में दबा दी गई। जबकि सन 1841 में धर राव विद्रोह के तौर पर सतारा के महाराज छत्रपति प्रतापसिंह को सत्ता से बेदखल करने बाद धर राव पंवार ने बग़ावत की। लेकिन हार हुई और बाग़ियों को कड़े दंड दिए गये।
1844 में कोल्हापुर विद्रोह के दौरान अंग्रेजों ने अपने एक नए कर्मचारी की गद्दारी की मदद के लिए राज्य में नियुक्ति की। जिसकी मदद से दोनों राजकुमारों को कैद करने का षड़्यंत्र रचा गया। लेकिन बात खुल गई और जनता चौकस हो गई और अंग्रेज अफसरों को ही कैद कर लिया गया। कई किले और अंग्रेजी खजाने लूट लिये गए। कर्नल ओवांस को कैद कर लिया गया। लेकिन संगठित होकर अंग्रेजों ने विद्रोह का दमन कर दिया।
1854 से 1855 तक अंग्रेज़ो के लिए संथाल विद्रोह सिर दर्द बना रहा। दरअसल बंगाल और बिहार में फैली हुई संथाल जाति के जीवन को ब्रिटिश शासन व्यवस्था और कर प्रणाली ने तहस नहस कर दिया था। हर वस्तु पर टैक्स लगे थे, यहां तक कि जंगली उत्पादों पर भी। करों की वसूली दिकू नाम के बाहरी लोग करते थे। उनके द्वारा पुलिस प्रशासन के सहयोग से संथालों का शोषण किया जाता था। महिलाओं का बड़े पैमाने पर यौन शोषण भी किया गया था। इतना ही नहीं भागलपुर वर्दवान रेल मार्ग के निर्माण के दौराम उनसे जबरन बेगार करवाया गजाता था। इसी जौरान पुलिस और प्रशासन ने कुछ संथालों को चोरी के इलज़ाम में पकड़ लिया। इस घटना ने गुस्से को और भड़का दिया, और 30 जून 1855 को भागिनीडीह गांव में 400 गांवो के हज़ारों संथालों जमा होकर बग़ावत का बिगुल फूंक दिया। क्षेत्र में मार्शल लॉ लागू कर दिया गया एवं हज़ारों संथालों को मार डाला गया और बग़ावत को दबा दिया गया।
इसके बाद सन 1855 का सैनिक विद्रोह भी आज़ादी के इतिहास का ख़ास हिस्सा है। ये फौजी बग़ावत निजाम हैदराबाद की फौज की तीसरी घुड़सवार सेना ने ती थी। विद्रोह को दबाने में ब्रिगेडियर मैकेंजी के घायल हुआ और मुश्किल से उसकी जान बच पाई, लेकिन बड़ी फौज भेजकर बग़ावत दबा दी गई।
सन 1857 यानि आज़ादी का पहला संग्राम इतिहासकारों की नज़र में आज़ादी की लड़ाई का बेहद ख़ास पड़ाव है। अगर कहा जाए कि चंद पेजों में इतने बड़ी आज़ादी के युद्ध का ज़िक्र करना आसान काम नहीं है। मुगल काल के आख़िरी सम्राट बहादुरशाह जफर की कमान में यह युद्ध लड़ा गया। लेकिन अफसोस कई रियासतों ने गद्दारी की और क्रांतिकारी सेना का साथ नहीं दिया। हांलाकि कई जगहों पर अंग्रेजी फौज बुरी तरह हारी लेकिन आख़िर में जीत उन्हीं की हुई। आज़ादी की इस जंग में एक लाख से ज़्यादा क्रांतिकारी सैनिक मारे गए थे।
इसके बाद 1850 से 1861 तक नील विद्रोह ने बंगाल और बिहार में नील की खेती को ही आंदोलन के तौर पर पहचान गिला दी थी। दरअसल नील की खेती से अंग्रेज बनिये खूब पैसा कमाते और संथाल मजदूरों का शोषण करते थे। आखिरकार संथाल मजदूरों और किसानों ने बग़ावत कर दी। जिसमें अंग्रेजों की कोठियाँ जला दीं गईं और कई अंग्रेज मारे गए। अफसोस बग़ावत दबा दी गई।
1872 का कूका विद्रोह सिखों के नामधारी संप्रदाय के कूका लोगों की बहादुरी की गाथा है। गुरु रामसिंहजी के नेतृत्व में हुए कूका विद्रोह में कूकों ने पंजाब को बाईस जिलों में बांटकर अपनी समानांतर सरकार बनाने का ऐलान कर दिया। सात लाख से अधिक कूके वीरों की अधूरी तैयारी में ही हुआ यह विद्रोह भी दबा दिया गया।
1875 से 1879 तक वासुदेव बलवंत फड़के के मुक्ति प्रयास ने वासुदेव बलवंत फड़के ने महाराष्ट्र की रामोशी, नाइक, धनगर और भील जातियों को संगठित करके उनकी एक सुसज्जित सेना बना डाली। जिसने अंग्रेजी सेना के खिलाफ कई लड़ाइयां लड़ीं। ब्रिटिश राज के लिए वह आतंक बन गया था। किसी गद्दार ने उसे सोते हुए गिरफ्तार करा दिया और उसे आजीवन कारावास का दंड दिया गया
1897 में चाफेकर संघ के तौर पर महाराष्ट्र के पूना में दामोदर हरि चाफेकर, बालकृष्ण हरि चाफेकर और वासुदेव हरि चाफेकर नाम के तीन सगे भाइयों ने एक संघ की स्थापना की। जिसमें युवकों को अर्द्ध-सैनिक प्रशिक्षण देकर ब्रिटिश साम्रज्य के खिलाफ तैयार किया। 22 जून 1897 को उन्होंने पूना के कमिश्नर मि. रैंड और एक पुलिस अधिकारी मि. आयरिस्ट को गोलियों से भून दिया था। जिसके बाद दोनों चाफेकर बंधुओं को फांसी दे दी गई, और सबसे छोटे भाई वासुदेव हरि चाफेकर को मुखबिर की हत्या के आरोप में फांसी दी गई।
1905 में बंग-भंग आंदोलन के दौरान वैसे तो बंगाल में स्वदेशी आंदोलन पहले से ही चल रहा था। जिसके तहत विदेशी चीज़ों का बहिष्कार और स्वदेशी वस्तुओं के उपयोग को प्रोत्साहित किया जा रहा था। इसी दौरान भारत के वाइसराय लॉर्ड कर्जन ने बंगाल के विभाजन की घोषणा की तो बंगाल भड़क उठा। अंग्रेजों के खिलाफ बमों और पिस्तौलों से बग़ावत कर दी गई जो बाद में सिर्फ बंगाल तक न रहकर पूरे भारत में आजादी का आंदोलन बन गया।
लगातार नाकामी के बाद कुछ क्रांतिकारियों ने सोचा कि सेना के बगैर आज़ादी पाना आसान नहीं है। लेकिन सेना बनाना भी आसान नहीं था, तो इस बात की कोशिश की गई कि अंग्रेजों के अधीन भारतीय सेनाओं को भड़काया जाए और आज़ादी की कोशिश की जाए। इसके लिए रासबिहारी बोस योजना के सूत्रधार बने। उन्होने इस काम के लिए सेनाओं को तैयार भी किया। लेकिन कृपालसिंह की गद्दारी ने भेद खोल दिया और कई क्रांतिकारियों को फांसी चढ़ा दिया गया।
1915 के हिंदुस्तान प्रजातंत्र संघ की मदद से रासबिहारी बोस के लेफ्टीनेंट शचींद्रनाथ सान्याल ने उत्तर भारत में एक क्रांति संगठन खड़ा कर दिया था। इस संगठन की सेना के विभागाध्यक्ष रामप्रसाद बिस्मिल थे। लेकिन ब्रिटिश सत्ता के आगे ये विफल हो गये।
अगर इसके बाद के युग को सशस्त्र क्रांति का प्रगतिशील युग कहा जाए तो गलत न होगा। जिसको भगतसिंह-चन्द्रशेखर आजाद युग के तौर पर भी देखा जा सकता है। दरअसल भगतसिंह जोकि क्रांतिपथ के मील के पत्थर के पर भी जाने जाते हैं। उन्होने ही हिंदुस्तान प्रजातंत्र संघ का नाम बदलकर हिंदुस्तान समाजवादी प्रजातंत्र संघ रख दिया था जिसमें खासतौर से अखिल भारतीय स्तर पर क्रांति संगठन खड़ा करना, क्रांति संगठन को धर्मनिरपेक्ष स्वरूप प्रदान करना, समाजवादी समाज की स्थापना का संकल्प करना, क्रांतिकारी आंदोलन को जन आंदोलन का स्वरूप प्रदान करना और महिला वर्ग को क्रांति संगठन में प्रमुख स्थान प्रदान करना मुख्य उद्देश्य थे। इस युग में भारत की आजादी के लिए अहिंसात्मक आंदोलनकारियों और क्रांतिकारियों द्वारा मिलजुलकर प्रयास किए गये थे। इस आंदोलन में दो चरण प्रमुख रहे। एक तो 1942 की अगस्त क्रांति यानि अग्रेजों भारत छोड़ो और और आज़ाद हिंद फौज। सन 1942 में जब अंग्रेजों के खिलाफ व्यापक जनक्रांति फूट पड़ी और ब्रिटिश हुकूमत ने 9 अगस्त सन 1942 को महात्मा गांधी समेत कई प्रमुख नेताओं को गिरफ्तार करके जेलों में डाल दिया और इस बीच गांधी जी के ‘करो या मरो’ के नारे न असर दिखाना शुरु कर दिया। और नेताविहीन आंदोलनकारियों की समझ में जो आया, वही उन्होंने किया। नतीजा जो लोग सत्याग्रह आंदोलन में विश्वास नहीं रखते थे, वो भी इस आंदोलन में कूद पड़े और तोड़-फोड़ और संचार व्यवस्था भंग करने लगे। यहां तक कि सेना का आवागमन रोकने के लिए रेल की पटरियां उखाड़ी जाने लगीं। ब्रिटिश शासन ने बेदर्दी से इस आंदोलन को कुचला और हजारों लोग गोलियों के शिकार बने।
इसके बाद दूसरे विश्वयुद्ध के दिनों से ही भारत के क्रांतिकारी नेता सुभाषचंद्र बोस अपनी योजना के अनुसार अफगानिस्तान होते हुए जर्मनी जा पहुंचे। जिस दौरान विश्वयुद्ध दक्षिण-पूर्व एशिया में उग्र हुआ और अंग्रेज जापानियों से हारने लगे, तो सुभाषचंद्र बोस जर्मनी से जापान होते हुए सिंगापुर जा पहुंचे। और आजाद हिंद आंदोलन की कमान अपने हाथों में लेली। आजादहिंद आंदोलन के प्रमुख अंग थे—आजाद हिंद संघ, आजाद हिंद सरकार, आजाद हिंद फौज, रानी झाँसी रेजीमेंट, बाल सेना, आजाद हिंद बैंक और आजाद हिंद रेडियो। आजाद हिंद फौज ने कई जगहों पर अंग्रेजों को हराया और मणिपुर, कोहिमा तक पहुंचने और भारतभूमि पर तिरंगा फहराने में कामयाब हुई।
अमेरिका के हाथों जापान के हिरोशिमा और नागासाकी पर परमाणु बम डालने के बाद भारी तबाही से जापान ने हथियार डाल दिए। और इसी के बाद नेताजी सुभाष द्वारा भारत की आजादी के लिए किए जा रहे प्रयत्नों का भी अंत हो गया। आजाद हिंद फौज के बड़े-बडे़ अफसरों को गिरफ्तार करके भारत लाया गया और उन पर मुकदमे चलाए गए। नेताजी सुभाष के विषय में कहा जाता है कि 18 अगस्त 1945 को फारमोसा द्वीप के ताइहोकू स्थान पर एक विमान दुर्घटना में उनकी मृत्यु हो गई थी।
कुल मिलाकर दुनियां के सबसे बड़े लोकतंत्र यानि भारतवर्ष की आज़ादी की गाथा इतनी लंबी और विस्तृत है कि लिखते रहो और पढ़ते रहो। गर्व करते रहो और कुछ बातों पर शर्मिंदा भी होते रहो। लेकिन सच्चाई यही है कि न तो आज़ादी के वीर मतवालों की आज भी कमी है न ही गद्दारों की। भगत सिंह, चंद्रशेखर आज़ाद अशफ़ाक़ुल्ला ख़ान जैसे न जाने कितने ही जाबांज़ आज भी देश के लिए अपनी जान हथेली पर रखने के तैयार हैं। लेकिन हमको उनसे भी चौकस रहना होगा जो कभी मीर जाफर या जयचंद बनकर हमारे सपनों के भारत हमारे प्यारे वतन को नुक़सान पहुंचाने की साज़िश करते रहते हैं। अभी हमारी आज़ादी की सालगिरह का ये 70वां साल है। हमारा सफर अभी लंबा है। इरादे बड़े हैं चुनौतियां ज्यादा है। इसके लिए हमारी एकता और आपसी प्यार बेहद ज़रूरी है। बतौर एक भारतीय, बतौर एक पत्रकार अपनी ज़िम्मेदारी का निर्वाह करना मेरा फर्ज़ है। किसी धर्म या जाति का होने से पहले सबको भारतीय होना होगा, तभी हमारी आज़ादी के असल मायने और देश पर कुर्बान होने वालों के सपने साकार होंगे।
(लेखक आज़ाद ख़ालिद टीवी पत्रकार हैं, डीडी आंखों देखी, सहारा समय, इंडिया टीवी. इंडिया न्यूज़ , वॉयस ऑफ इंडिया समेत कई राष्ट्रीय चैनलों में महत्वपूर्ण पदो पर कार्य कर चुके हैं।)