फरमान अली
गाजियाबाद 1⁄43 सितंबर 20151⁄2 महापौर तेलूराम कांबोज के निधन के बाद महापौर उपचुनाव को लेकर भले ही अखबारों व मीडिया में भले की खबरे सुर्खियां बन रही है लेकिन हकीकत यह है कि इस चुनाव में कूदने से सभी राजनीतिक दलों के दिग्गज बच रहे हैं। उनका तर्क है कि यदि वे चुनाव जीत भी गए तो उनके करने के लिए कुछ भी नहीं बचेगा। इस लिए चुनाव के दूर ही रहा जाए तो बेहतर है।
अगस्त माह में महापौर तेलूराम कांबोज का निधन होने के बाद महापौर पद पर उप चुनाव की पूरी-पूरी संभावना है। चूंकि अभी तक महापौर का दो साल का लंबा चैडा कार्यकाल बचा हुआ है। नगर निगम एक्ट के तहत यह व्यवस्था है कि यदि कार्यकाल के बीच किसी महापौर का निधन हो जाता है तो जल्द से जल्द चुनाव कराए जाने चाहिए। ताकि निगम क्षेत्र में लोगों को निरंतर रूप से सुविधाएं मिलती रहे। इस स्थिति में प्रदेश सरकार को निगम का चुनाव कराना जरूरी है। इस संभावना के मददेनजर सभी राजनीतिक दलों में महापौर उपचुनाव को लेकर मंथन चल रहा है और चुनाव लडने के लिए अनेक नाम चर्चाओं में है। इनके सबसे ज्यादा भाजपा खेमे में हलचल है। इसमें बिल्डर ललित जायसवाल,भाजपा नेता अशु वर्मा, पृथ्वी सिंह, रूप सिंह चैधरी समेत पिछडी जाति से ताल्लुक रखने वाले कई नेताओं के नाम चर्चाओं में है जबकि समाजवादी पार्टी से सुधन रावत समेत कुछ अन्य नेताओं के नाम चर्चाओं में है। कांगे्रस में लालमन, राजीव भाटी,विजय चैधरी, अरूण चैधरी भुल्लन समेत कई नाम चर्चाओं में है लेकिन इनमें कई नेता ऐसे है जो केवल चर्चाओं में ही है। नेता अपने नाम केवल चर्चा में रहने के लिए ही किसी न किसी रूप में शिगुफा छोड रहे है। या फिर वे दावेदार चर्चा में हो जो राजनीति में नए है लेकिन दिग्गज राजनीतिज्ञ इस चुनाव से दूर ही रहना चाहते हैं। उनका मानना है कि इस चुनाव में यदि चुनाव जीत भी गए तो भी बहुत ज्यादा हासिल होने वाला नहीं है। उनका तर्क है कि कहने को तो महापौर का जो कार्यकाल शेष बचा है वह दो साल का है लेकिन जो परिस्थितियां है उससे लगता है कि महापौर को इन दो वर्षों के दौरान कुछ करने का ही मौका नहीं मिलेगा। उनका कहना है कि यदि सरकार चाह भी ले तो भी चुनाव कराने के कम से कम चार से छह माह का समय लगेगा। इसके बाद बचा डेढ साल। इसके बाद स्थिति को समझने में ही कम से कम छह महीने का समय लग जाएगा। इसी बीच विधानसभा चुनाव की तैयारियां शुरू हो जाएंगी और आचार संहिता लागू हो जाएगी। फिर चुनाव संपन्न होने तक कोई कार्य नगर निगम में नहीं होगा। इसके बाद यह भी नहीं पता कि सरकार किसकी बनेगी। यदि विपक्ष की सरकार बन गई तो वह काम नहीं करने देगी। इसके बाद ही नगर निगम चुनाव की तैयारी शुरू हो जाएगी और कार्यकाल खत्म। उनका कहना है कि इस स्थिति में चुनाव न लडना ही बेहतर है। इनका तर्क यह भी है कि चूंकि उपचुनाव किसी भी सत्ताधारी दल के लिए जीतना बेहद आसान होता है चूंकि इसमें सरकारी मशीनरी का दुरूपयोग आसानी से हो जाने की संभावना रहतीहै। इस लिए दूसरे दलों के नेता भी इसको लेकर बहुत ज्यादा उत्साहित नहीं दिख रहे है।