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नई दिल्ली (6 जनवरी 2022)- क्या किसी भी लोकतांत्रिक देश का चुना हुआ मुखिया किसी सियासी दल का या सिर्फ अपनी ही पार्टी का मुखिया होता है या पूरे देश का। क्या भारत के प्रधानमंत्री केवल बीजेपी के प्रधानमंत्री हैं या देश की 130 करोड़ की आबादी के । क्या देश के किसी भी प्रदेश की सरकार केवल उस पार्टी तक सीमित रह सकती जिसकी वहां सरकार हो। क्या किसी ऐसे राज्य में जहां बीजेपी की सरकार न हो वहां पर प्रधानमंत्री के जाने पर उनका सीधे तौर पर अप्रत्यक्ष तौर पर विरोध करना या प्रधानमंत्री की सुरक्षा में लापरवाही होना किसी भी तौर पर माफी के क़ाबिल है। दरअसल ये सभी सवाल 5 जनवरी को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पंजाब दौरे के दौरान उनकी सुरक्षा में कथित तौर पर लापरवाही और उनके क़ाफिले के काफी देर तक फंसे रहने के बाद उठ रहे हैं। इतना ही नहीं दुनियां के सबसे बड़े लोकतंत्र के चुने हुए प्रधानमंत्री का यह कहना कि अपने मुख्यमंत्री से कह देना कि मैं सुरक्षित वापस आ गया हूं न सिर्फ बेहद गंभीर बात है बल्कि देश के लिए बेहद शर्मानाम भी। लेकिन इससे भी ज्यादा शर्मनाक है इसके ऊपर हो रही राजनीति और बयानबाजी। एक ऐसा देश जिसने अपने दो दो प्रधानमंत्री आंतकी हमलों में गंवा दिये हों। साथ ही छत्तीसगढ़ में झीरम घाटी नकस्ली आतंक में पूर्व केंद्रीय मंत्री समेत दर्जनों नेताओं का काफिला मौत के मुंह में समाते देखा उसी देश के मौजूदा प्रधानमंत्री की सुरक्षा में हुई गंभीर लापरवाही पर सियासत करना और अपनी ज़िम्मेदारी से भागना लापरवाह अफसरों और पंजाब के मुख्यमंत्री समेत कांग्रेस और कुछ पत्रकारों तक के लिए शर्मनाक है। क्या देशके प्रधानमंत्री की रैली के विरोध या उनको नीचा दिखाने की नीयत से किसानों की नाराज़गी की आड़ में इतनी घिनौनी राजनीति की जानी चाहिए। या फिर पत्रकारिता के नाम पर सच्चाई दिखाने के बजाए दो गुटों में बंटे पत्रकार ज़ुबानी जंग में मसरूफ हो जाएं। पत्रकारों का एक खेमा सीधे तौर पर पीएम की सुरक्षा के नाम पर बीजेपी की वफादारी के नाम पर केवल खोखला शोर मचा रहा है जबकि दूसरा तबका कांग्रेस से वफादारी और पीएम मोदी से विरोध का फर्ज़ निभाता दिख रहा है। कांग्रेस का समर्थन और बीजेपी का विरोध करने वालों का तर्क है कि रैली में भीड़ कम थी इसलिए रैली को रद्द करने के लिए पीएम मोदी के सलाहकारों में ये ड्रामा रचा। जबकि बीजेपी समेत गृहमंत्रालय तक ने लापरवाही की और पीएम की सुरक्षा से खिलवाड़ की बात कही है। साछ ही सवाल ये भी उठता है कि क्या पंजाब सरकार या कांग्रेस ने किसानों की नाराज़गी के नाम पर पीएम मोदी को नीचा दिखाने के लिए एक सोची सोची समझी रणनीति के तहत इतना बड़ा गेम खेला। मैं निजी तौर पर बीजेपी का विरोधी या कांग्रेस का समर्थक हो सकता हूं लेकिन देश के प्रधानमंत्री का या उनकी सुरक्षा का कभी नहीं। बीजेपी से मुक़ाबले के लिए सीधे तौर पर सामने आकर विरोध किया जाए या कोई रणनीति बनाई जाए। लेकिन किसानों की हमदर्दी के नाम पर कांग्रेस सबसे पहले तो यह बताए कि दिल्ली में लगभग एक साल तक चले किसान आंदोलन में राहुल गांधी या प्रियंका गांधी या सोनिया गांधी कितनी बार टीकरी बार्डर या गाजीपुर बार्डर गये। इसके अलावा जिस कांग्रेस में किसान कांग्रेस के नाम पर संघठन तो मौजूद हो लेकिन पिछले कई साल से उसके नाम पर किसी नेता या कार्यकर्ता तक का भरोसा तक कांग्रेस न जीत पाई हो। उसको किसानों के नाम पर राजनीति शोभा नहीं देता।
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