आदमी अपने जीवन काल में किसी न किसी जानवर को पानी पिलाता ही है या किसी न किसी रूप में उसे खाना देता ही है। ऐसे में मनुष्य और इन जानवरों के बीच कम से कम एक भरोसे का रिश्ता तो रहा ही है। बेशक कोई व्यक्ति हाथी को अपने घर में नहीं पालता, लेकिन जब आदमी हाथी को छूता है तो दोनों के बीच एक भरोसा तो होता ही है कि दोनों में से कोई भी किसी को नुकसान नहीं पहुंचाएगा।
देश में गजानन के स्वरुप की प्रतीक एक गर्भवती हथिनी को भोजन के रूप में पटाखे खिलाकर उसके पेट में पल रहे भ्रुण के साथ उसके जीवन को बेहद ही बेरहमी के साथ ध्वस्त करने की हदृयविदारक घटना उसी देश में होती है, जहां पुण्य-प्रताप के लिए पक्षियों को दाना-पानी और चींटी को आटा खिलाया जाता है। गाय और कुत्तों को रसोई घर में बनी पहली रोटी खिलाई जाती है।
वर्तमान में केरल की ये घटना इंसान और जानवर के बीच के भरोसे के टूटने की घटना है।
वर्तमान समय में एक तरफ पोस्ट ह्यूमन की बात की जा रही है तो वहीँ दूसरी तरफ वैज्ञानिकों ने 29 अगस्त 2016 को इस बात की घोषणा कर दी कि हमारी धरती होलोसिन युग से निकलकर एक नए एन्थ्रोपोसिन युग में प्रवेश कर चुकी है। पोस्ट ह्यूमन की अवधारणा दरअसल प्रकृति से संबंधित हरेक चीज़ यहाँ तक कि पत्थर को भी इंसान के बराबर मूल्यवान मानता है वहीँ एन्थ्रोपोसिन युग मानव-प्रकृति संघर्ष से उत्पन्न असंतुलन का परिणाम है।
पिछले एक दशक में हाथियों की संख्या देश में 10 लाख से घटकर 27 हजार हो गई है,केरल में ही हर तीन से चार दिनों में एक हाथी की मौत हो जाती है।कई हाथी सर्कस में बंधक हैं। पूरे भारत में करीब 2 हजार से 2500 हाथियों को बंधक बनाकर रखा गया है। और करीब 1800 हाथी मंदिरों में बंधक हैं। केवल केरल में ही ऐसे 500 हाथी कैद में हैं।
विकास के प्रति इंसानी लालच और बढती आबादी का दवाब मनुष्यों और पशुओं के मध्य टकराव की स्थिति उत्पन्न कर रहा है।कई अहम् प्रजातियों का अस्तित्व आज संकट में है।आपकी जानकारी के लिए बता दें कि तक़रीबन 60 के दशक में ही ग्रेट इंडियन बस्टर्ड को भारत का राष्ट्रीय पक्षी घोषित करने की बात हो रही थी लेकिन हमारी अनदेखी की वजह से आज इनकी संख्या मात्र 200 रह गई है।
गौरतलब है कि जब तक जंगल पर्याप्त मात्रा में थे तब तक मानव और वन्यजीव अपनी-अपनी सीमा क्षेत्रों में सुरक्षित थे।लेकिन बदलते वक्त के साथ बढती आबादी का दवाब जंगलों के अस्तित्व के लिए श्राप साबित हुए और बड़े स्तर पर जंगलों की कटाई प्रारंभ हो गई।कृषि का विस्तार,बढती आबादी के लिए आवास,शहरीकरण और औदोगिकीकरण में वृद्धि,पशुपालन,विभिन्न मानवीय आवश्यकताओं के कारण वनों की कटाई,चारे के कारण वनों के स्वरुप में बदलाव,बहुउद्देशीय नदी-घाटी परियोजनाएं, झूम(स्थानांतरण)कृषि ऐसी ही कुछ वजहें इन संघर्षों का कारण हैं।
हाल ही में पर्यावरण व वन्यजीवों की सुरक्षा के मद्देनज़र बांदीपुर टाइगर रिजर्व से गुजर रहे एनएच 766 पर रात नौ बजे से सुबह छह बजे के बीच ट्रैफिक पर रोक लगा दी गई है।इस रोक का उद्देश्य वन्यजीवों को होने वाली परेशानियों को कम करना है। आपकी जानकारी के लिए बता दें कि इन संरक्षित क्षेत्रों के बीचो-बीच गुज़रने वाले रेलवे ट्रैक के कारण बीते तीन सालों में तक़रीबन 35 हाथियों और 11 बाघों की मौत हो चुकी है।लेकिन स्थानीय लोगों द्वारा इस रोक का सख्त विरोध होना मानव-पशु संघर्ष का उद्दाहरण है।
आपको बता दें कि मानव-पशु संघर्ष का ये कोई पहला मामला नहीं है। कुछ समय पहले पर्यावरण एवं वन मंत्रालय ने तीन राज्यों उत्तराखंड,बिहार और हिमाचल प्रदेश के कुछ वन्य प्रजातियों को अपराधी की श्रेणी में रखकर उन्हें मारने का अधिकार दे दिया था.इन पशुओं को मारने के बदले किसी भी प्रकार का अभियोग नहीं लगाने का भी प्रावधान दिया गया था। जैसे बिहार में नीलगाय,हिमाचल प्रदेश को बन्दर अन्य राज्यों में जंगली सूअर की हत्या करने पर किसी भी प्रकार का अभियोग नहीं लगाये जाने की बात कही गई थी।
यह कदम इन जानवरों द्वारा बर्बाद किए जा रहे फसलों को लेकर उठाया गया था। हालाँकि इससे हुए नुक्सान के सही आंकड़े नहीं है परन्तु किसानों या सम्पति मालिकों को इन पशुओं के कारण अनुमानत: 200 से 400 करोड़ रुपये का नुक्सान हुआ है।दूसरी तरफ प्राकृतिक संसाधनों पर इंसानी अतिक्रमण से हाथियों के स्वाभाविक कॉरीडोर छिन गए हैं, बाघों और तेंदुओं की बढ़ती आबादी के लिए रहने की जगह और भोजन की किल्लत हो रही है।
उल्लेखनीय है कि भारत अपनी वन्यजीव आबादी में बढ़ोत्तरी के लिहाज से दुनिया में अग्रणी स्थान रखता है। बाघ और एशियाई हाथी का तो भारत सबसे बड़ा ठिकाना माना ही जाता है। इसके अलावा देश में 661 संरक्षित क्षेत्र हैं जो देश के सम्पूर्ण भौगोलिक क्षेत्र के 4. 8% में फैले हुए हैं.साथ ही देश में 100 नेशनल पार्क,514 वन्यजीव अभ्यारण्य,43 संरक्षित रिज़र्व और 4 सामुदायिक रिज़र्व हैं।
आपकी जानकारी के लिए बता दें कि आज़ादी से पूर्व और आज़ादी के बाद वन्य-जीव संरक्षण की दिशा में कई संवैधानिक और क़ानूनी प्रक्रिया का निर्माण किया भी गया-जिसमें वन्य जीवों को विलुप्त होने से रोकने के लिए सर्वप्रथम 1872 में वाइल्ड एलीफैंट प्रिज़र्वेशन एक्ट पारित हुआ था।1927 में भारतीय वन अधिनियम अस्तित्व में आया, जिसके प्रावधानों के अनुसार वन्य जीवों के शिकार एवं वनों की अवैध कटाई को दण्डनीय अपराध घोषित किया गया। आज़ादी के बाद भारत सरकार द्वारा इंडियन बोर्ड फॉर वाइल्ड लाइफ की स्थापना की गई। 1956 में पुन:भारतीय वन अधिनियम पारित किया गया।
इसके अलावा भारतीय संविधान में भी वन्य जीवों के संरक्षण से सम्बंधित कई प्रकार के प्रावधान हैं।आपको बता दें कि वन्यजीवों को संविधान की समवर्ती सूची में रखा गया है। सम्बंधित मामलों की निगरानी,नीति निर्माण और नियोजन के लिए एक केंद्रीय मंत्रालय है और राज्य के वन विभागों की ये ज़िम्मेदारी है कि वे राष्ट्रीय नीतियों को कार्यान्वित करें।
इस संबंध में सबसे बड़ा कदम साल 1972 में उठाया गया, जब एक व्यापक केंद्रीय कानून वन्यजीव संरक्षण अधिनियम पारित किया गया। इस अधिनियम में विलुप्त होते वन्य जीवों तथा अन्य लुप्त प्राय: प्राणियों के संरक्षण का प्रावधान है।इसके अलावा साल 1983 में वन्य जीवों की चिंतनीय स्थिति में सुधार एवं वन्य जीवों के संरक्षण के लिये राष्ट्रीय वन्यजीव योजना प्रारंभ की गई।
इतने सारे संवैधानिक व क़ानूनी प्रावधानों के बाद भी मानव पशु संघर्ष की स्थिति में कोई विशेष सुधार होता नहीं दिखाई दे रहा है।दरअसल इस संबंध में प्रमुख समस्या कानूनों को जमीनी स्तर पर लागू करने को लेकर ज्यादा है। जमीनी स्तर की समस्याओं के समाधान हेतु संबंधित प्रशासनिक अथॉरिटी और जनता के मध्य की खाई को पटना होगा।
इस खाई को पाटने के लिए वन्य जीवों के प्रति लोगों को जागरूक करना अत्यंत आवश्यक है।मानव-पशु संघर्ष को तत्काल प्रभाव से रोकने हेतु वन विभाग के अधिकारियों को माक ड्रिल के द्वरा इस संबंध में नागरिकों को तकनीकी जानकारी देनी होगी। जंगल के पशु दावानल यानि वनाग्नि के कारण मानव बस्तियों का रूख करते है इसलिए दावानल को रोकने के लिए विशेष रणनीति की आवश्यकता है।इसके साथ-साथ हाथियों के आवागमन के लिए कॉरिडोर की बेहतर व्यवस्था होनी जरुरी है।
हालाँकि इस संबंध में कई प्रकार के कदम जैसे मानव-वन्य जीव संघर्ष को कम करने के लिए क्या करे और क्या न करें के संबंध में लोगों को जागरूक बनाने हेतु सरकार द्वरा विभिन्न प्रकार का जागरूकता अभियान का चलाया जाना,वन कर्मचारियों और पुलिस को प्रशिक्षण देना,वन्यजीवों के हमले को रोकने के लिए संवेदनशील क्षेत्र के आस-पास दीवारों तथा सोलर फेंस का निर्माण करना इत्यादि उठाये गए हैं।परन्तु इस संबंध में जन जागरूकता विशेषकर युवा पीढ़ी के अन्दर मानव-वन्य जीव सहसंबंध के प्रति प्रतिबद्धता अत्यंत महत्वपूर्ण है।
हमारी भावी पीढ़ियों को ये समझना होगा कि मानव-पशु संघर्ष पशुओं के लिए नहीं बल्कि इंसानों के अस्तित्व के लिए संकट है। महात्मा गांधी ने सच ही कहा था कि प्रकृति के पास इंसानों की आवश्यकता पूर्ति के लिए सब कुछ है लेकिन लालच के लिए कुछ नहीं है, अत: हमें लालच को छोड़कर संवेदनशील होना ही होगा। इंसानों और बेजुबान पशुओं के बीच विश्वास को कायम रखना होगा तभी प्रकृति हम पर कृपया रखेगी और जीवन जीने लायक बनेगा वरना प्रकृति एक दिन बदला लेगी और कहेगी- मैंने तुम पर भरोसा किया, तुमने किया विश्वासघात।
डॉo सत्यवान सौरभ
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