हाल ही में आए और इतिहास बनने की कगार पर जा पहुंचे एक खबरिया चैनल जिसको खबरों की एक्सप्रेस होने का दावा किया गया था…! लेकिन साबित हुआ फिसड्डी पैसेंजर की मानिंद…! इस चैनल को चलाने के नाम पर कई कथित बड़े पत्रकारों ने माया की बहती गंगा में जमकर गोता लगाया, और जमकर अपना बैंक बैलेंस बढ़ाया…! भले काम करने वालों और जूनियरों को कम सैलरी पर काम करने को मजबूर किया गया मगर कुछ कथित सीनियरों द्वारा खुद की दुकान खूब चमकाई गई….और बाद में एक कथित टीआरपी विशेषज्ञ पत्रकार तो कुछ ही दिनों में चैनल मालिक के चिटफंडियां ख़ज़ाने को अपने लच्छेदार दावों के दम पर महज़ कुछ ही दिनों में करोड़ों का हिसाब किताब थमा कर चलते बने। उन्ही पत्रकार महोदय को रातों रात न जाने कैसे आकाशवाणी हुई कि भले ही वो चैनल को कुछ न दे पाए हों… मगर फिल्म बहुत अच्छी बना सकते हैं। बालीवुड का रुपहला पर्दा उनके इंतज़ार में बाहे पसारे तड़प रहा है….और अक्सर जिस तरह की स्टोरियां फील्ड में रहने वाले लगभग हर पत्रकार कवर करते रहते हैं…. उसी तरह की एक स्टोरी को देखकर न्यूजरूम तक सीमित यह खिलाड़ी न जाने क्यों मान बैठा कि उनके हाथ जनता के लिए ये एक बड़ा मसाला लग गया है… और वो ठहरा पर्दे का बड़ा खिलाड़ी… और उन्होने चिटफंडियां चैनल से और इधर उधर से हथियाई हुई रक़म को ख़ुद को प्रड्यूसर तक की गली में घुसे़डने के लिए लगा दिया दांव पर…। वैसे इससे अच्छा कोई धंधा हो भी नहीं सकता। फिल्म कामयाब.. तो वारे न्यारे लेकिन खोया भी ….तो अपना क्या गया…. अपना था ही क्या….यारों के माल पर ऐश में क्या बुराई है…. और हुआ भी वही… जिसका खुद उनके हमदर्दों को भी अंदाज़ा था। यानि लाख कोशिश और सारे हथकंड़ो समेत अपने चमचों की फौज से फिल्म देखने की अपीलों के बावजूद फिल्म जनता के दिमाग में हाजिर न हो सकी। बहरहाल फिल्म चलने या चलने को लेकर जनता या हम बहुत न आशावान हैं न निराश…मगर इतना तो तय है कि चिटफंडियां कंपनी को चूना लगाकर या सैंकड़ो पत्रकारों को बेरोजगारी की कगार पर छोड़ कर करोडो़ं की रकम जिस रास्ते से आई थी…. उसी की पिछली गली से शायद चली भी गई। चूंकि मान्यवर भले ही कागजी हों…. मगर हैं बेहद जुगाड़ू….हो सकता है कि इस खेल में भी किसी की टोपी किसी के सिर करके कुछ रकम बना ली हो और आगे भी उस दुनियां में पैर जमाने की कोशिश में लगे रहें….. जहां कम उम्र की लड़कियां टाइम पास या शादी करने के लिए बड़ी उम्र को लेकर टेंशन नहीं बल्कि सिर्फ एक चांस को तरजीह देती हैं। और वैसे भी ये जनाब तो इस खेल के भी माहिर जो ठहरे….। बस दुख इस बात का है कि जिस काम के लिए ये लोग जाने जाते थे उसी में सच्चे मन से काम कर लेते और करोड़ों की लागत से लाया गया एक चैनल अगर कामयाब हो जाता तो न जाने समाज के कितने ज्वलंत मुद्दे उठाए जाते और न जाने कितने पत्रकारों के घरों के चूल्हे की आग ठंडी न पड़ती…. और कुछ पत्रकारों के बच्चे आज भी स्कूल की अपनी फीस के लिए माता पिता को शर्मिंदा न कर रहे होते….
(कहानी बिल्कुल मन घंड़त है इसका टनकपुर या इस तरह के किसी नाम के किसी भी पात्र से इसका कोई लेना देना नहीं हैं)
(लेखक आज़ाद ख़ालिद टीवी पत्रकार हैं सहारा समय, इंडिया टीवी, इंडिया न्यूज समेत कई राष्ट्रीय चैनलों में महत्वपूर्ण पदों पर कार्य कर चुके हैं।)