देहरादून(29अगस्त2015)- उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्रों में यदि बागवानी को बढ़ावा दिया जाए तो वह दिन दूर नहीं जब यह राज्य फलोत्पादन में हिमाचल और जम्मू-कश्मीर राज्यों की बराबरी करेगा। हिमालयी राज्यों के इन दोनों राज्यों में बागवानी के प्रति लोगों की गहन रुचि रही है। परिणामस्वरूप आज ये राज्य फलोत्पादन में उत्तराखंड से कहीं आगे हैं। ओ.पी उनियाल के मुताबिक़ इन राज्यों में भी बागवानों के सामने कई समस्याएं हैं। इसके बावजूद भी ये निरंतर तरक्की की राह पर हैं।
कश्मीरी और हिमाचली सेब की तो बाजार में खासी मांग है। इसके अलावा अन्य की भी। उत्तराखंड में भी फलोत्पादन की असीम संभावाएं हैं। लेकिन देखा गया है कि यहां बागवानी में बहुत कम की दिलचस्पी है। जो बागवानी के क्षेत्र में हैं वे सरकारों की उपेक्षा के चलते स्व-निर्भर नहीं हो पा रहे हैं। जबकि कुछ पहाड़ी क्षेत्रों में सेब, नाशपाती, आड़ू, अखरोट, खुमानी, माल्टा, मौसमी आदि फलों का अच्छा उत्पादन होता है। उत्तराखंड में उत्पादित सेब का बाजार इतना चढ़ा हुआ नहीं है कि बागवान उससे खासा लाभ कमा सके। फलोत्पादकों के सामने सबसे बड़ी समस्या विपणन की है। उसके बाद परिवहन, लदाई-ढुलाई, मौसम, प्राकृतिक आपदाएं जैसी समस्याएं। यही स्थिति अन्य उत्पादित फलों के साथ भी है। राज्य के पर्वतीय इलाकों में सरकार चाहे तो चाय के बागान लगाकर बागवानी को बढ़ावा दे सकती है। मगर कमोबेश हालात यह हैं कि जहां अंग्रेजों के जमाने के चाय बागान थे उन्हें भी उजाड़ा जा रहा है। उत्तराखंड की राजधानी के आस-पास भी चाय के बागान थे। जो कि केवल नाम के लिए रह गए हैं। पहाड़ों की बंजर जमीन पर भी चाय के बागान लगाए जा सकते हैं। यही नहीं औषधि पादपों की भी बागवानी की जा सकती है। कश्मीर व हिमाचल की तर्ज पर केसर व अन्य प्रकार की बागवानी को बढ़ावा दिया जा सकता है। उत्तराखंड की वर्तमान सरकार बागवानी को पुनर्जीवित करने की बात तो कर रही है परन्तु सरकार की पहल कब तक और कितनी कामयाब होगी इसके बारे में कुछ अनुमान नहीं लगाया जा सकता।