नई दिल्ली(25 मार्च 2016)-क्या उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के लिए दोबारा सत्ता पाना आसान काम है। क्या आने वाले उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में युवा सीएम अखिलेश यादव अपनी छवि और कार्यों के दम पर कोई जादू दिखा पाएंगे। क्या समाजवादी पार्टी द्वारा जारी उम्मीदवारों की पहली सूची जनता और पार्टी कार्यकर्ताओं की अपेक्षाओं के अनुरूप है। कुछ इसी तरह के सवाल जनता और पार्टी कार्यकर्ताओं के मन हैं।
अभी चंद रोज़ पहले ही उत्तर प्रदेश में समाजवादी सरकार के चार साल पूरे होने पर सपा कार्यकर्ता जश्न मना रहे थे। लेकिन इसके उलट पार्टी हाइकमान और पार्टी के रणनीति कारण यक़ीनन चार साल के जश्न के बजाए जनता के दरबार में दोबारा जाने के लिए बचे एक साल को लेकर चिंता में होंगे। सूबे की कमान संभाले युवा वज़ीर ए आला और उनके सलाहकारों के सामने यही सवाल रहा होगा कि कितने वादे पूरे हुए और कितने महज़ दावे रह गये, और जनता इस बार उनका रिपोर्ट कार्ड कैसा बनाएगी। शायद इसी सबको सोच कर समाजवादी पार्टी ने एक साल पहले ही उन 143 सीटों पर अपने उम्मीदवार घोषित कर दिये हैं। जहां वो पिछले विधानसभा चुनावों में सपा की आंधी में भी जीत का मज़ा नहीं चख सकी थी। ताकि समय रहते जनता के बीच जाकर जनता की नब्ज़ को टटोला जा सके। वैसे भी युवा मुख्यमंत्री अपनी कार्यशैली के मुताबिक़ कोई चांस लेना नहीं चाहेंगे।
कुल मिला कर समाजवादी पार्टी ने अपने उम्मीदवारों को भरपूर समय देते हुए जनता के बीच जाने का फरमान जारी कर दिया ताकि मंज़िल हासिल करने में कोई कोताही न रह सके। लेकिन इस मौक़े पर कुछ सवाल और जनता के बीच होने वाली चर्चा भी ख़ासी एहमियत रखती है। दरअसल इन उम्मीदवारों में शायद एमवाई फैक्टर का ध्यान रखते हुए 29 मुस्लिम और 16 यादव उम्मीदवारों पर भी दांव खेला गया है। लेकिन सबसे ख़ास बात ये है कि उत्तर प्रदेश में सरकार बनते ही वादा खिलाफी के नाम पर नाराज़ होने वाले इमाम बुख़ारी के दामाद को बेहट से टिकट दिया गया है। इसके अलावा गाजियाबाद समेत कुछ जगहों पर ऐसे नाम भी शामिल हैं जिनके साथ कई तरह के विवाद जुड़े रहे हैं। ये अलग बात है कि उनकी बेतहाशा दौलत ने उनको ज़मीनी कार्यकर्ता के बजाए वीआईपी नेताओं के तौर पर पार्टी में जगह दिला दी है।
अभी तक कुछ लोग बीएसपी पर आरोप लगाते थे कि यहां पैसे के दम पर टिकट तय किये जाते हैं लेकिन सपा की पहली सूची को देखकर लगता है कि इस बार समाजवादी पार्टी को चुनावों में जीत के साथ साथ फंड की ज्यादा फिक्र है। राजनीति के जानकारों की मानें तो चार साल पहले जिस प्रचंड बहुमत से समाजवादी पार्टी ने सरकार बनाई थी, उसकी दोबारा उम्मीद करना ख़ुद पार्टी के कई दिग्गजों के गले नहीं उतर रहा है। ऐसे में माना यहा जा रहा है कि फंड पर ज़ोर देना कोई ताज्जुब की बात नहीं।
अगर फिलहाल बात पश्चिमी उत्तर प्रदेश की की जाए तो मुज़फ़्फ़रनगर के उधोगपति शाहनावज़ राणा यूं तो कई बार विधायक रह चुके हैं और बतौर एक मुस्लिम सियासी परिवार उनकी खासी पहचान है। लेकिन विरोधियों का कहना है कि कभी बिजनौर से चुनाव जीतने वाले और इस बार अपनी चमक खो चुके शाहनवाज़ राणा दोबारा बिजनौर जाने की हिम्मत भले ही न जुटा पा रहे हों मगर पश्चिमी उत्तर प्रदेश के विवादित और धन कुबेर शाहनवाज़ राणा ने इस बार सियासत में अपनी छवि के बजाए चांदी की खनक के दम पर ही टिकट हासिल किया है। जबकि गाजियाबाद में एक नये चेहरे के तौर पर युवा राशिद मलिक बहुत तेज़ी उभरे। लेकिन उनकी ही पार्टी में उनके कुछ विरोधियों का मानना है कि कहीं तेज़ी से उनका सियासी ग्राफ भी नीचे गिरता देखा गया है। अपने जिलाध्यक्ष काल में सीडी कांड में फंसे राशिद मलिक के बारे में चर्चा है कि अपने ही वार्ड से अपने एक रिश्तेदार तक को जिताना उनके लिए ख्वाब बन गया था। ऐसे में उनको ही साहिबाबाद से टिकट दिया गया है। उधर उनको मिले टिकट से नाख़ुश लोगों के बीच चर्चा ये भी है कि मलिक बिरादरी पर मज़बूत पकड़ रखने वाले बीएसपी के कई बार पार्षद रहे आदिल मलिक अपने इलाके में राशिद मलिक के लिए बड़ी चुनौती साबित हो सकते हैं। वैसे भी शहनवाज़ राणा के नाम के साथ जुड़े कई लड़कियों के कांड और कई तरह के विवाद उनको ही नहीं पार्टी के लिए भी चुनौती से कम नहीं हैं। जबकि युवा मुख्यमंत्री और समाजवादी पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष अखिलेश यादव की स्वच्छ छवि को देखते हुए जनता हर उम्मीदवार को अपने पैमाने पर तोलना चाहेगी।
ऐसे में समाजवादी पार्टी की पहली सूची को देखकर पार्टी कार्यकर्ता जितना उत्साहित हो सकता है उससे कहीं ज्यादा कुछ ऐसे नाम भी हैं जिनको देखकर ख़ुद पार्टी को जनता के बीच जाने में मायूसी हाथ लग सकती है। ये अलग बात है कि चुनावों में काफी वक़्त है और जनता के मिज़ाज और मुद्दों में बदलाव की संभावना को देखते हुए फिलहाल कुछ भी कहना जल्दबाज़ी हो सकती है।