गाजियाबाद(10अगस्त2015)- वयोवृद्व पत्रकार व महापौर तेलूराम कांबोज आज हमारे बीच नहीं रहे। उनके दुनिया से जाने का दुख सभी को है और व्यक्ति उन्हें अपनी श्रृदांजलि दे रहा है। उनके जीवन से कुछ सीखने की बात कर रहा है। ऐसे में जरूरी है कि इस बात पर विचार किया जाए कि कांबोज के राजनीति जीवन से हम क्या सीख सकते है उनके जीवन की सबसे बडी उपलब्धता क्या थी छोटे से कस्बे कैराना से शुरू हुआ उनका जीवन गाजियाबाद जैसे महानगर के महापौर पद रहते कैसे पूरा हुआ। आखिर कुछ तो उस शख्स में जो अनेक बाधाओं को दूर करते हुए इस पर पहुंचा। यूं तो हर व्यक्ति में भीतर अच्छाई व बुराई होती हैं लेकिन कुछ लोगों के कुछ अच्छाछियां अन्य लोगों पर भारी पडती है और उन्ही के बल पर ही वह आगे बढता जाते है यह अलग बात है कि ऐसे लोगों को सफलता देरी से और कडी मशक्कत के बाद ही मिलती है। ऐसे ही लोगों की श्रेणी में शामिल थे तेलूराम कांबोज। उन्होंने ताउम्र आरएसएस व भाजपा के साथ गुजार दिया। यह बात अलग थी कि पत्रकार होने के नाते उनके संबंध अन्य राजनीतिक दलों के नेताओं से भी अच्छे थे लेकिन उन्होंने आज कल के नेताओं की तरह अपनी विचारधारा नहीं बदली। कपडों की तरह राजनीतिक दल नहीं बदले और न हीं अपनी श्रृद्वा ही बदली। वे हमेशा आरएसएस या जनसंघ या फिर भाजपा से जुडे रहे। इन दलों ने उन्हें महत्व दिया या नहीं दिया लेकिन उनकी आस्था अडिग रही। भाजपा ने उन नेताआंे को महत्व दिया जो उनके सामने पार्टी में आए या उन्होंने ही इन नेताओं को राजनीतिक गुण सिखाए। लेकिन कांबोज कभी इससे विचलित नहीं हुए। मुझे याद है कि विधानसभा के चुनाव के मददेनजर भाजपा के कई नेता टिकट की लाइन में थे। जिसमें श्री कांबोज भी शामिल थे। उन्हें उम्मीद थी कि पार्टी में उनके समर्पण व आस्था और बडे नेताओं से सीधा संपर्क होने के कारण उन्हें ही टिकट मिलेगा लेकिन पार्टी ने ऐसे नेता को टिकट दिया जिसने कांबोज की पाठशाला में ही राजनीतिक गुण सीखे थे। जिससे कांबोज काफी खिन्न हो गए थे। उनके बेहद करीबी ने मुझसे एक राजनीतिक खबर लिखने को कहा तो मैने खबर प्रकाशित की तो उनहोंने मुझे अपने दफतर में बुलाकर मेरी खबर की काफी प्रशंसा की। लेकिन इतने खिन्न होने के बावजूद उन्होंने पार्टी से अलग होने की बात नहीं सोचे तथा कुछ दिन बाद फिर अपने काम में लग गए। जिसका लाभ उन्होंने वर्ष 2012 में हुए महापौर के चुनाव में मिला। सीट पिछडी जाति के लिए रिजर्व हुई और उनके सामने भाजपा के कई प्रभावशाली नेताओं ने टिकट मांगा लेकिन पार्टी ने उनके पार्टी में समर्पण को देखते हुए टिकट दिया। जिस वक्त उन्हें टिकट दिया गया तो किसी को उम्मीद नहीं थी कि वह चुनाव जीत जांएगे चूंकि उनके सामने पार्टी के अन्य उम्मीदवार आर्थिक रूप से मजबूत थे और चुनाव में उन्होंने जमकर धन की बारिश की लेकिन जनता के श्री कांबोज की लाज रखी और उनहें महापौर पद बनाया। महापौर बनने के बाद भी वे कभी अपनी पार्टी लाइन से अलग नहीं गए। आज कांबोज दुनिया से रूखसत हो चुके हैं लेकिन आज उनके जीवन से उन नेताओं को सीख लेने की जरूरत है जो रातों रात अपनी आस्था व पार्टी बदल देते हैं।
(लेखक फरमान अली, दैनिक जागरण में वरिष्ठ संवाददाता रह चुके है। इसके अलावा अन्य कई समाचार पत्रों में विभिन्न पदों पर काम कर चुके है।)