ग़ाज़ियाबाद (12 नवंबर 2017)- उत्तर प्रदेश निकाय चुनाव यूं तो बेहद अहम हैं, लेकिन ग़ाजि़ायाबाद नगर निगम का मेयर कौन हो, ये बड़ा सवाल है ? पालिका से नगर निगम बनने बाद शुरु से आज तक ग़ाज़ियाबाद नगर निगम का मेयर बीजेपी से ही रहा है। यानि ग़ाज़ियाबाद की जनता ने अपनी परेशानियों के लिए बीजेपी पर सबसे ज़्यादा भरोसा किया गया। जबकि बीजेपी जनता के भरोसे पर कितना खरा उतरी ये सवाल भी बड़ा है ?
लेकिन इस चुनावी माहौल में बीजेपी एक बार फिर दावा कर रही है कि जनता को परेशानियों से बीजेपी मुक्त कराएगी और चाहे टैक्स का मामला हो या सफाई की परेशानी, बीजेपी अगर मेयर बनवा पाती है तो सभी समस्याएं हल होंगी। ऐसे में सवाल यही है कि जब दो दशक से भी ज़्यादा से बीजेपी नगर निगम पर क़ाबिज़ और समस्याएं आज भी वहीं खड़ी हैं, तो भला अब फिर उसी बीजेपी पर जनता कैसे भरोसा करेगी?
चाहे कई बार मेयर रहे स्व. डीसी गर्ग हों या फिर दमयंति गोयल, या फिर तेलुराम कांबोज और आशु वर्मा ये सभी बीजेपी के नाम पर जीतने वाले मेयर थे। बीजेपी के हाथ में नगर निगम की कमान इतने समय तक रहने के बाद भी ग़ाज़ियाबाद की जनता आज भी अपनी परेशानियों के लिए उसी चौराहे पर खड़ी है जहां 20 साल पहले थी। जबकि नेताओं और पार्षदों का ग्राफ बेहद तेज़ी से ऊपर बढ़ा है। चुनावों में चंदा मांगने और ख़ुद को फटेहाल दिखाने वाले पार्षद तक जीतने के बाद चंद ही साल में कुर्ता पर मंहगे कलफ से अपनी हैसियत दिखाने लगे हैं। ये बात लगभग हर दल और जमात के पार्षदों पर लागू हो रही है।
दिलचस्प बात ये है कि आशु वर्मा के अलावा बीजेपी का पिछला कोई मेयर जनता के सामने अपने कार्यकाल के लिए जवाब देह है ही नहीं। जी हां सभी अब इस दुनियां से रुख़सत हो चुके हैं। जबकि आशु वर्मा के कार्यकाल में केंद्र से लेकर सूबे तक में उन्ही की पार्टी यानि बीजेपी की सरकार रही तो उनको शिकायत भी शायद नहीं होगी कि सरकार सपोर्ट नहीं कर रही।
बहरहाल इस बार जनता पिछले अनुभवों के आधार पर हो सकता है कि कुछ नया करने की ठान ले। जनता के लिए बतौर ऑप्शन मैदान में बीएसपी, आम आदमी पार्टी समेट समाजवादी पार्टी और कई दूसरे चेहरे में भी मैदान हैं। जहां तक आम आदमी पार्टी की बात है तो यूपी सहित गाजियाबाद में अपना जनाधार बढ़ाने के लिए जी तोड़ कोशिश करती रही है। ये अलग बात है कि लोकसभा चुनावों में चखना और फेंकने वाली पॉलिसी हो या फिर विधानसभा चुवानों में मैदान छोड भागने के फैसले से पार्टी उत्तर प्रदेश में हाशिये पर ही दिखाई पड़ती रही है। ऐसे में आम आदमी के वकील बनने का दावा करने वाला कोई उम्मीदवार जनता के बीच कितना भरोसा बना पाएगा ये बड़ा सवाल है। यानि आम आदमी पार्टी के उम्मीदवार को महज़ पार्टी की बेसाखी पर नहीं बल्कि अपनी छवि को भी जनता तक साबित करना होगा ताकि उन पर भरोसा किया जा सके।
जबकि लोकसभा में पूरी तरह वीरगति को प्राप्त हो चुकी बीएसपी की भी हालत बहुत अच्छी नहीं है। विधानसभा चुनावों में भी बहन जी की रणनीति पार्टी को सियासी कोमा से निकालने में नाकाम ही रहा। ऐसे में उसके भी उम्मीदवार से उम्मीदें करने से पहले जनता सोचेगी ज़रूर। लेकिन बीएसपी उम्मीदवार पहले भी ग्राम प्रधान रह चुकीं हैं और अपने पति की जुझारु और लड़ाकू छवि को भुनाने की कोशिश कर सकती हैं। दरअसल चाहे भूमिअधिग्रहण का मामला हो या फिर जनता से जुड़े बड़े मुद्दे सतपाल चौधरी की छवि बेहद जुझारू और ना झुकने वाली रही है। वैसे भी इस बार जनता को कोई नाम का मोहरा नहीं बल्कि ऐसा मेयर चाहिए जो उनकी समस्याओं के लिए संघर्ष करने का दम रखात हो।
कुछ यही हाल समाजवादी पार्टी के उम्मीदवार पर भी लागू होती है। हाल ही में सत्ता से बेदखल हुई सपा निकाय चुनाव के दम पर न सिर्फ सूबे की सियासत में अपनी धमक साबित करना चाहेगी बल्कि अपने कार्यकर्ताओं को सक्रिय रखना चाहेगी ताकि 2019 लोकसभा चुनाव तक उनके सियासी सोच ज़ंग न खा जाए। ऐसे में अकेले सपा उम्मीदवार की साख और दमखम के दम पर ही मेयर की गद्दी तक का रास्ता आसान न होगा, बल्कि संघटन को भी पसीना बहाना होगा।
बात कांग्रेस की करें तो उत्तर प्रदेश ही नहीं इस बार राहल गांधी की कमान में कांग्रेस में नई जान फूंकने की भरपूर कोशिश हो रही है। वैसे भी कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश उपचुनाव में चित्रकूट में अपनी मेहनत का एहसास करा ही दिया है। लेकिन गाजियाबाद में उसके लिए राहें बहुत आसान नहीं है। हांलाकि उसके पास युवा और जुझारु चेहरा है। लेकिन अपनी कोशिशों को जीत में बदल पाने के लिए लोकसभा से लेकर विधानसभाओं में हुई हार से सबक लेना कांग्रेस के लिए बेहद ज़रूरी है। क्योंकि चुनाव कोई भी हो हवा बाज़ी और मुंगेरी लाल के सपनों के बजाए जनता के वोटों से ही जीता जा सकता है।
रहा सवाल बीजेपी का तो उसने इस बार भी बेहद सोच समझ और मंथन के बाद ही अपना उम्मीदवार तय किया है। पिछले कुछ साल का हिसाब देखें तो गाजियाबाद बीजेपी का गढ़ ही बनता नज़र आ रहा है। लेकिन इस बार उसके सामने कई चुनौतियां हैं। कहा तो यहां तक जा रहा है कि इस बार अंदर भी सब कुछ टीक नहीं चल रहा है। ये अलग बात है कि बीजेपी इस से पूरी तरह इंकार कर रही है। जबकि केंद्र की सरकार के चार साल, नोटबंदी और जीएसटी से उसका सबसे मज़बूत वोट बैंक भी सोचता नज़र आ रहा है। प्रदेश की योगी सरकार से वादे और उनकी ज़मीनी सच्चाई भी बीजेपी के लिए सवालों की वजह बन रही है। लेकिन सबसे बड़ी चुनौती बीजेपी के लिए नगर निगम में उसका सबसे लंबा और एक मात्र कार्यकाल ही है। हां ये अलग बाद है कि जो लोग बीजेपी को कमज़ोर मान रहे हैं वो भी शायद जल्दी बाज़ी में नज़र आ रहा है । क्योकि बीजेपी जिस ढंग से चुनावी तैयारी करती रही है उससे उसका न कॉन्फिडेंस डोलता नज़र आ रहा है, न ही कोई घबराहट ही। जीत को लेकर जिनता हर उम्मीदवार आश्वसत है उतना बीजेपी का उम्मीदवार भी।