(नई दिल्ली, 30 नवंबर 2017)-कोई ख़ुद को हिंदु बताने में गर्व महसूस कर रहा है, कोई मुस्लिम होने पर फ़ख़्र कर रहा है। कोई किसी का धर्म पूछ रहा है, कोई किसी को अपने धर्म की श्रेष्ठता साबित करने में पसीना बहा रहा है। सवाल ये है कि इंसान होने पर किस किस को गर्व है, और क्या इन दिनों ख़ुद को भारतीय समझने और कहने वाले किसी अवकाश पर गये हुए हैं।
उधर कोई गाय के लिए किसी की जान ले रहा है तो किसी ख़बरिया चैनल पर अपने देश के कई गंभीर मुद्दों के बजाय पाकिस्तान के हालात पर चिंता में गर्मा गरम बहस हो रही है, तो कहीं कथित तौर पर भूख और अव्यवस्था के ख़िलाफ कथित नक्सलियों की आवाज़ को नज़रअंदाज़ करके आंतक के ख़ात्मे पर करोड़ों की लाइटों से जगमग स्टूडियो में बहस छिड़ी है, तो कहीं देश की आम महिला के दर्द को भुला कर तीन तलाक़ को मुद्दा बनाने की कोशिश जारी है। कोई किसी के नाना दादा की क़बरे खोद रहा है।
इतना ही नहीं घोषित घोटालेबाज़ और अपराधी मानसिकता तक के लोग सरकारी सुरक्षा में हैं, कोई अपनी सुरक्षा को लेकर परेशान है तो कोई प्रझानमंत्री तक की खाल उधेड़ने की हिम्मत दिखा रहा है। चंद परिवारों की बपौती बनते जा रहे देश की भले ही किसी चिंता हो या न हो लेकिन 13 साल से घोषणा के बावजूद देश की सबसे पुरानी पार्टी भले ही अपने घोषित अध्यक्ष की ताजपोशी की हिम्मत न जिटा पा रही हो, लेकिन ब्रेकिंग न्यूज आज भी यही है कि जल्द होगी ताजपोशी..।
देश की समस्याओं और जनमुद्दों के बजाय टीवी चैनलों के रिसर्चर इन दिनों उन मुद्दों की तलाश में हैं, जो किसी विवाद के हल की तलाश के नाम पर कुछ और नये विवादों को जन्म दे सकें। संपादकीय और ख़बरिया टीम के आंखों पर इतना आधूनिक और तकनीकी चश्मा चढ़ा दिया गया है कि बड़े-बड़े मुद्दे, बहुचंर्चित कथित एंकाउंटर की सीबीआई जांच के दौरान जज की मौत पर उठ रहे सवालों, राफेल डील हो या देश और जनता से जुड़ा कोई भी मुद्दा, न सिर्फ धुंधला हो जाता है, बल्कि कई बार पूरी तरह अदृश्य तक हो जाता है। अब इसे तकनीक का ही कमाल कहा जा सकता है कि जिस देश में कोर्ट को भूख से मरने पर सरकारों की ज़िम्मेदारी तय करनी पड़ जाए, जिस देश में भात भात कहते हुए भूख से गरीब बच्ची की मौत हो जाए और उसी देश के प्रधानसेवक एक विदेशी शासक की पुत्री के लिए अपने दस्तरख़्वान पर कथिततौर करोड़ों ख़र्च करने के लिए चर्चाओं में हैं।
बेहद ख़ुशी महसूस होती है कि शायद देश में अब कोई समस्या रही नहीं, शायद सभी को रोज़गार मिल गया, ये बेहद ख़ुशी की बात है कि अब नशे की गिरफ्त में फंसे जो बच्चे हर शहर के रलवे स्टेशनों पर देखे जाते थे उनको इस नरक से बाहर निकाल दिया गया, शिक्षा स्वास्थ और इंसान की ज़िंदगी की ज़रूरी चीज़े बेहद सस्ती हो गईं हैं और हर आदमी अपने परेशानियों से मुक्त है। ऐसे में हमारे नेश्नल न्यूज चैनल्स पाकिस्तान के हालात पर बहस करें या फिर सनी लियोन के जीवन दर्शन को जन मानस को समझाएं या फिर बिग बॉस को प्रचारित करें तो कोई बुरी बात नहीं। दरअसल देश की सरकार ने भले ही टीवी चैनलों को लाईसेंस देश की जनता के भलाई के लिए दिया हो लेकिन कई-कई सौ करोड़ के सेटअप और करोडों रुपये महीने का ख़र्चा किसी भूखे की बात करने से तो आने वाले नहीं। इसके किसी धनाड्य के तलुए न चाटे जाएं तो क्या उसकी बात की जाए तो ख़ुद एक टाइम की रोटी खाने को तरस रहा हो।
वैसे भी आप क्या आज भी यही सोचते हैं कि कंधे पर खादी का थेला लटकाए, जेब में कलम लगा कर ख़बर की खोज में घूमने वाले पुराने पत्रकारों की तरह आज के समझदार पत्रकार अपने करोड़ों की बंगले और लग्ज़री गाडियों, सरकारी मशीनरी की महरबानी और बेहद ख़र्चीली जीवनशैली को ऐसे गरीब आदमी और मुद्दे के लिए त्याग जिससे एक शाम की रंगीन पार्टी के आयोजन का ख़र्च भी वसूल न हो सके।
(लेखक आज़ाद ख़ालिद टीवी पत्रकार हैं डीडी आंखों देखी, सहारा समय, इंडिया टीवी, इंडिया न्यूज़, समेत कई नेश्नल चैनलों में महत्वपूर्ण पदों पर कार्य कर चुके हैं, वर्तमान में हरियाणा के एक चैनल में बतौर चैनल हैड कार्यरत हैं।)