इलाहाबाद(18अगस्त2015)- ये कैसी विडंबना है… कि सरकारी नौकरी पाने की लालसा भले ही हर भारतीय के मन में हो…! मगर सरकारी अस्पताल में इलाज के बजाए मंहगे नर्सिंग होम पर भरोसा, सरकारी स्कूल में अपने बच्चे को पढ़ाने के बजाए कांनवेंट और प्राइवेट स्कूल की मंहगी, सरकारी बसों में सफर के मुक़ाबले लग्जरी कारों की क़तार, सरकारी टंकी और नल के पानी को छोड़ हर घर की छत पर मंहगा टैंक और सबमर्सिबल का इस्तेमाल, पुलिस पर भरोसा न करके हर पॉश क़लोनी में गेट और घर के बाहर गार्ड के रखने वालों की खासी तादाद देखी जा सकती है। शायद अच्छे सामाजिक स्तर और सम्मानित जीवन शैली का सबसे बडा पैमाना यही है कि सरकारी सुविधा का त्याग कर डालो। ऐसे में इलाहाबाद हाईकोर्ट के एक फैसले ने एक बार फिर साबित कर दिया है कि देश की न्यायिक व्यस्था और अदालतें ही देश के बारे मे बेहतर ढंग से सोचने और प्रभावी ढंग से जन सरोकार के मुद्दों को सुलझाने के लिए गंभीर हैं।
इलाहाबाद हाईकोर्ट ने मंगलवार को एक बड़ा फ़ैसला सुनाते उत्तर प्रदेश सरकार को निर्देश दिया कि सभी नौकरशाहों और सरकारी कर्मचारियों के लिए उनके बच्चों को सरकारी प्राथमिक विद्यालय में पढ़वाना अनिवार्य किया जाए। ये कोई मामूली फैसला नहीं है, बल्कि एक ऐकिहासिक पहल है। जिस सरकारी स्कूल में जाने और भेजने से बच्चा और उसके अभिभावक शर्म महसूस करते हैं। उसकी इस दशा के लिए अगर सीधे तौर पर ज़िम्मेदार सरकारी मशीनरी को कहा जाए तो ग़लत न होगा। ऐसे में माननीय इलाहाबाद उच्च न्यायलय के इस फैसले के दूरगामी परिणाम सामने आ सकते हैं। अगर राज्य सरकार सही मायनों मे जनता का प्रतिनिधित्व करने का दावा करती है, तो अदालत के इस फैसले के अनुपालन के लिए इसको अपनी इच्छा शक्ति का परिचय देना होगा।
दरअसल हाईकोर्ट ने निर्देश दिया है कि ऐसी व्यवस्था की जाए कि अगले शिक्षा-सत्र से इस आदेश का अनुपालन सुनिश्चित हो सके। शिवकुमार पाठक की याचिका पर सुनवाई करते हुए न्यायमूर्ति सुधीर अग्रवाल की अध्यक्षता वाली खंडपीठ ने यह बात कही है। इस याचिका में कहा गया कि सरकारी परिषदीय स्कूल में शिक्षकों की नियुक्ति पर नियमों का पालन नहीं किया जा रहा है जिसकी वजह से अयोग्य शिक्षकों की नियुक्ति हो रही है। और इसी वजह से बच्चों को उचित और स्टैंडर्ड की शिक्षा नहीं मिल पा रही है। याची का कहना है कि इस बात की फिक्र ना तो सम्बंधित विभाग के अधिकारियों को है और ना ही प्रदेश के उच्च प्रशासनिक अधिकारियों को। याचिका में कही गई बातों को आधार मानते हुए कोर्ट ने सख्ती से ये निर्देश दिया कि प्रदेश के आईपीएस-आईएएस अधिकारी और सरकारी कर्मचारी और जनप्रतिनिधि के बच्चों को सरकारी स्कूल में पढ़ाई कराना अनिवार्य कर दिया है।
इस फैसले के बाद प्रदेश में शिक्षा के सुधार की कोशिशों को लेकर गेंद राज्य सरकार के पाले में आ गई है। अब सवाल यही है कि क्या शिक्षा के नाम पर अरबों रुपए के लैपटॉप बांटने वाली सरकार अपनी ब्यूरोक्रेसी को इस बात के लिए सख्ती करना तो दूर मना भी पाएगी? साथ ही क्या समाज में एक ऐलीट प्राणी की तरह जीने वाली अफसरशाही के लोग अपने उस लख्तेजिगर को उन टाट और टूटी हुई बैंचो पर बैठने को तैयार कर पाऐंगे जो एयरकंडिशंड और फाइव स्टार शिक्षा की दुकान में चांदी की थाली में सोने के चम्मच से लंच ब्रेक करने का आदी हो चुका है। साथ ही क्या जनता की रहनुमाई के नाम पर सियासत करने वाले लोग भी अब अपने बच्चों को सरकारी स्कूल में भेजने की पहल कर पाएगें। क्योंकि किसानों के मसीहा चौधरी चरण सिंह के बेटे अजीत सिंह हों या फिर धरती पुत्र के बेटे अखिलेश यादव या नेहरू की बेटी इंदिरा गांधी, राजीव गांधी या फिर राहुल गांधी समेत बड़े नेताओं के सैंकड़ों बच्चे जिनमें प्रत्येक शिक्षा के नाम पर इतना खर्च आता है जितना कि किसी सरकारी स्कूल का पूरा खर्च।
हाइकोर्ट के इस आदेश की जितनी तारीफ की जाए उतना ही कम है। अगर राज्य सरकार अदालत के इस आदेश के अनुपालन के लिए प्रदेश की अफसरशाही को किसी भी तरह से राज़ी कर लेती है तो यक़ीनन उन स्कूलों के भी दिन सुधर जाऐंगे जोकि देश की शिक्षा व्यवस्था का खुले तौर पर मज़ाक बनते जा रहे हैं। हांलाकि इसका एक दूसरा पक्ष ये भी है, कि अगर सरकारी स्कूलों में भी अफसरों के बच्चे पढ़ने जाने लगे, तो आम और गरीब आदमी की शिक्षा का एक मात्र सहारा, यानि सरकारी स्कूल भी उसके पहुंच से तो दूर तो नहीं हो जाएगा?