ग़ाज़ियाबाद(3 सितंबर 2015)- अगर बात खाकी वर्दी की हो तो यकायक अनुशासन का ख़्याल भी मन में ही आ जाता है। क्योंकि दोनों का मानो चोली दामन का साथ है। लेकिन आजकल गाजियाबाद में खाकी की आबरू पर उसके रखवाले ही कीचड़ उछालते पाए जा रहे हैं। ये अलग बात है गुरुवार को ही यहां के एसएसपी धर्मेंद्र यादव ने तीन ऐसे ही पुलिस वालों को बेहद नायाब तरीक़े से न सिर्फ सज़ा दी है, बल्कि उनका रिश्ता ही ख़ाकी से ख़त्म कर डाला है। ताकि जनता में ख़ाकी आन बाक़ी रह सके।
इस मामले का ज़िक्र करते हुए एक बार फिर पुलिस और अनुशासन की बात पर चर्चा होना लाज़मी सा हो गया है। दरअसल पुलिस महकमा एक ऐसा महकमा है जहां अनुशासन के नाम पर कई मिसालें देखीं जा सकती है। चाहे वर्दी के रखवाले पुलिस की साप्ताहिक या कैसी भी छुट्टी की बात हो या फिर इस महकमें में कभी भी यूनियन तक न होना। वर्दी को पहनने के बाद सबसे बड़ा बोझ शायद उस अनुशासन का ही होता है जिसकी रक्षा के लिए सिपाही पैदा होता है। लेकिन जब गाजियाबाद के तीन सिपाहियों के खिलाफ लूट और रंगदारी वसूलने जैसे कई संगीन जुर्मों से पर्दा हटा, तो कप्तान धर्मेंद्र यादव ने विभागीय प्रक्रिया के तहत जांच या कोई जांच कमेटी बनाने के बजाए अपने पूरे अधिकारों का प्रयोग करते हुए तीन सिपाहियों राजीव कुमार, नीरज राठी और राजेंद्र राठी के खिलाफ बेहद सख्त क़दम उठाए हैं। दरअसल अगर किसी भी पुलिस वाले के खिलाफ कोई शिकायत आती है तो उस पर विभागीय जांच के बाद ही कार्रवाई की जाती है। लेकिन ऐसे ही कुछ मामलों के निबटारे के लिए पुलिस एक्ट(उत्तर प्रदेश अधीनस्थ श्रेणी के अधिकारी/कर्मचारी (दंड व अपील नियमावली 1991) की धारा 8(2) (बी) भी मौजूद है। जिसके तहत सीधे सक्षम अधिकारी कार्रवाई कर सकते हैं।अपनी इसी पॉवर या ज़िम्मेदारी का सीधा निर्वाह करते हुए धर्मेंद्र यादव ने यह साबित कर दिया है कि वो अगर मासूमों की तलाश में रात दिन एक करके, ऑप्रेशन स्माइल से समाज के चेहरे पर मुस्कान देखने की तमन्ना कर सकते हैं, तो खाकी की आबरू के लिए रौद्र रूप वाले अधिकारी बनकर ऑप्रेशन क्लीन बोल्ड भी चला सकते हैं।
लेकिन इस सबके बावजूद कुछ ऐसे सवाल भी जिनका जवाब जनता धर्मेंद्र यादव से भी जानना चाहती है?अब यहां के एसएसपी धर्मेंद्र यादव के बारे में भले ही कुछ लोग अक्सर तारीफों के पुल बांधते देखे जाते रहे हों, लेकिन हाल ही के कुछ दिनों में जिस तरह से गाजियाबाद के कई पुलिस वालों के कारनामे सामने आए उसके बाद तो ये सोचा जाना लाज़िमी है कि आख़िर पुलिस के वर्दी में इस तरह के लोग कब से अपने काले कारनामों का खेल खले रहे थे? धर्मेद्र यादव अपने ही महकमें की इन काली भेड़ों को पहचानने के लिए किस तरह काम कर रहे हैं? हाल ही में विजय नगर थाने के सिपाही का मामला हो या फिर ये ताज़ा मामला। कहीं ऐसा तो नहीं कि अपराध में लिप्तता के आरोप में पकड़े गये पुलिस वाले काफी पहले से कई वारदातों को अंजाम देते रहे हों? साथ ही क्या सिर्फ पकड़े गये आरोपी ही इन वारदातों में शामिल थे, या फिर उनके ऊपर भी कोई पुलिस अफसर बतौर आक़ा इनको संरक्षण तो नहीं देता या देते रहे हैं? कुल मिलाकर सवाल यही है कि खाकी पर दाग़ लगाने वाले खाकी के ही कुछ रखवाले तो ज़रूर बेनक़ाब हो गये। मगर कहीं इनके बड़े आक़ा तो अभी भी ख़ाकी की आड़ में काले कारनामों को अंजाम तो नहीं दे रहे? शायद विभाग और धर्मेंद्र यादव जैसे जागरुक अफसरों के लिए यही सबसे बड़ी चुनौती है.!